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वायर वाली बाघिनः जिसने इंसानी गलती की सजा भुगती, पर जिंदगी से हार नहीं मानी

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वायर वाली बाघिनः जिसने इंसानी गलती की सजा भुगती, पर जिंदगी से हार नहीं मानी

बाघिन को फंदा कब और कैसे लगा, इसका सटीक उत्तर आज भी उपलब्ध नहीं है। परंतु अनुभवी वन कर्मियों और जंगल के जानकारों के अनुसार यह घटना किसी खेत या जंगल के किनारे लगाए गए क्लच वायर से जुड़ी हुई प्रतीत होती है...

वायर वाली बाघिनः जिसने इंसानी गलती की सजा भुगती, पर जिंदगी से हार नहीं मानी

Specialist's Corner
प्रशान्त कुमार वर्तमान में उत्तराखण्ड वन विभाग में वरिष्ठ परियोजना सहयोगी (वन्यजीव) के पद पर कार्यरत हैं तथा पिछले सात वर्षों से वन्यजीव अपराध नियंत्रण एवं संरक्षण में प्रभावी शोध एवं विश्लेषण कार्य कर रहे है। इन्होंने लगभग पन्द्रह हजार से अधिक वन कर्मियों को वन्यजीव फॉरेंसिक एवं वन्यजीव संरक्षण विषय में प्रशिक्षित किया है तथा पांच सौ से अधिक प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन भी किया है। प्रशान्त कुमार, फॉरेंसिक विज्ञान में बीएससी तथा एमएससी है एवं वाइल्डलाइफ फॉरेंसिक्स में फील्ड के अनुभवी हैं।
साल 2020 के आसपास उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जनपद के सुरई फॉरेस्ट रेंज में एक वयस्क बाघिन कैमरा-ट्रैप में दर्ज हुई, जिसके पेट के चारों ओर लोहे की तार कसकर लिपटी हुई थी। यह तार संभवतया किसी शिकारी द्वारा लगाया गया क्लच वायर स्नेयर था जिसे आमतौर पर छोटे शिकार जैसे हिरन, सुअर या खरगोश आदि को पकड़ने के लिए बिछाया जाता है, या सोलर फेंसिंग में प्रयोग किया जाने वाला तार। यह घटना केवल एक घायल बाघिन की कहानी नहीं थी। यह मानव-वन्यजीव संघर्ष, पर्यावरणीय अज्ञानता और जैव-संवेदनहीनता की सामूहिक तस्वीर थी। बाघिन ने तीन वर्षों तक उसी जकड़न के साथ जीवित रहकर दो बार शावकों को जन्म दिया। इस घटना ने वन्यजीव-वैज्ञानिकों और संरक्षण-नीति-निर्माताओं दोनों को झकझोर दिया और साथ ही प्राकृतिक रूप से उस घाव को झेलते हुए जंगल के नियमों को भी स्वीकारा। समय बीतता गया और मौसम बदलता गया परन्तु आज तक बाघिन उस फंदे से मुक्त न हो सकी, कारण जो भी रहा हो।
फंदा(स्नेयर) क्या है? 
फंदा(स्नेयर) एक प्रकार का तार होता है जो मोटर वाहन से उपयोग के बाद निकाल दिया जाता है। इसे जंगल के समीप रहने वाले किसान या शिकारी प्रवृत्ति के लोग मोटर गेराज से या कबाड़ से ले लेते है और खेत के किनारे गांठ लगाकर मजबूती से फंसा देते है। जब कोई जानवर जैसे जंगली सुअर या हिरन इसके ऊपर से जाता तो उसका सिर, पैर, गर्दन या कमर फंस जाता है और यह इतना मजबूत होता है की बिना टूटे जानवर के शरीर को जकड लेता है। जानवर जितना छटपटाता है उतना ही कसता जाता है और अंत में मर जाता है। कई बार इसी चक्कर में बाघ व तेंदुआ भी फंस जाते है जिससे उनकी भी मौत हो जाती है। शिकारी इसे जानवरों के चलने वाले रास्तों या खेत के किनारों पर लगाते हैं। वन्यजीव-विज्ञानियों के अनुसार, ऐसे मामलों में मृत्यु-दर लगभग 70-80: होती है। सुरई की बाघिन उन 20 प्रतिशत जीवित बचे मामलों में से एक है, जिसने दीर्घकालिक अनुकूलन (लॉन्ग टर्म फिजियोलॉजिकल अडॉप्टेशन) दिखाया।
आखिर क्यों लगाते है फंदा?
यह बहुत ही सस्ता और साइलेंट शिकारी औजार है जिसमे बहुत अधिक जोखिम की सम्भावना नहीं होती है। यह आसानी से उपलब्ध हो जाता है और बिना रोकटोक उपयोग किया जाता है। यदि बेकार और उपयोग किये क्लच वायर नहीं मिलते तो शिकारी या किसान नया खरीदकर भी लगा देते है।
बाघिन को फंदा कब और कैसे लगा?
बाघिन को फंदा कब और कैसे लगा, इसका सटीक उत्तर आज भी उपलब्ध नहीं है। परंतु अनुभवी वन कर्मियों और जंगल के जानकारों के अनुसार यह घटना किसी खेत या जंगल के किनारे लगाए गए क्लच वायर से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। शुरू में यह तार शायद बाघिन के गले के आसपास भी था, जिसे बाघिन ने अपनी ताकत और चालाकी से किसी तरह निकाल लिया। लेकिन उसके पेट और कमर के चारों ओर यह तार कसकर रह गया। शुरुआती महीनों में बाघिन के असहज होने और घबराने के कारण वह जंगल में कहीं छिपकर रह गई और किसी की नजर में नहीं आई।
कुछ समय बाद कैमरा ट्रैप में बाघिन का फोटो सामने आया। विशेषज्ञों ने देखा कि उसकी कमर का पिछला हिस्सा सिकुड़ गया था और घाव की स्थिति देखकर यह साफ था कि यह किसी स्नेयर का परिणाम है। वन विभाग ने तुरंत इस पर कार्रवाई करने की योजना बनाई, लेकिन शावकों के साथ बाघिन को पकड़ना अत्यंत संवेदनशील और जोखिम भरा था। किसी भी गलत कदम से न केवल बाघिन बल्कि उसके बच्चों की भी जान खतरे में पड़ सकती थी।
समय के साथ, साल बीतते गए। बाघिन अपने प्राकृतिक आवास में रहने लगी और उसने जंगल की सारी गतिविधियाँ फिर से शुरू कर दीं। वह शिकार करने, शावकों को पालने और अपने दैनिक कामकाज में लगी रही। घाव धीरे-धीरे सूख गए, और फंदा उसके कमर में धंसता चला गया, लेकिन उसने बच्चों को पालने और बड़ा करने में कोई कठिनाई नहीं होने दी।
वन विभाग ने बाघिन की गतिविधियों पर निरंतर नजर रखी। कैमरा ट्रैप से सिर्फ उसकी तस्वीरें नहीं मिलीं, बल्कि उसके शिकार के पैटर्न, दिनचर्या और शावकों के साथ उसके व्यवहार का विस्तृत रिकॉर्ड भी जमा हुआ। प्रेसर इम्प्रैशन पैड से यह पता चला कि बाघिन अपने इलाके के केंद्र में रहती है और खतरे का आभास होते ही तुरंत अपने शावकों के साथ सुरक्षित स्थान की ओर चली जाती है। विशेषज्ञों ने पाया कि इसके बावजूद उसने अपने शिकार की क्षमता और शारीरिक ताकत को बनाए रखा।
वन्यजीव विज्ञान की दृष्टि से यह बाघिन दीर्घकालिक शारीरिक अनुकूलन का अद्भुत उदाहरण थी। पेट और कमर में जकड़े फंदे के बावजूद उसके शरीर ने धीरे-धीरे उस बाहरी दबाव के अनुसार ढलना शुरू किया। घाव की बनावट और फंदे के दबाव के कारण मांसपेशियों और हड्डियों की संरचना में हल्के परिवर्तन हुए, लेकिन यह बाघिन को चलने, शिकार करने और शावकों की देखभाल करने में कोई बड़ी बाधा नहीं बना।
वन विभाग ने कई बार सोचा कि बाघिन को रेस्क्यू कर फंदा हटाया जाए, लेकिन हर बार जोखिम का आकलन किया गया। शावकों के साथ उसे पकड़ना अत्यंत संवेदनशील था, क्योंकि किसी भी गलत कदम से शावकों की जान को खतरा हो सकता था। इसके अलावा, जंगली बाघिन को पकड़ने के दौरान उसे मानसिक और शारीरिक तनाव भी होता, जो उसकी लंबी उम्र और शावकों की सुरक्षा के लिए खतरनाक साबित हो सकता था। इसलिए वन विभाग ने रेस्क्यू के बजाय उसे प्राकृतिक तरीके से जीवित रहने दिया और निगरानी जारी रखी।
इस प्रक्रिया में यह भी स्पष्ट हुआ कि बाघिन के भीतर जीवित रहने की अद्भुत क्षमता और मातृत्व का स्वाभाविक संतुलन है। उसने फंदे के दबाव के बावजूद शिकार के लिए दौड़ना, शावकों को खिलाना और उन्हें सुरक्षित रखना जारी रखा। विशेषज्ञों ने इसे प्राकृतिक अनुकूलन और मानसिक दृढ़ता का एक जीवंत उदाहरण बताया। यह केवल एक घायल बाघिन की कहानी नहीं थी, बल्कि इंसानी गलती, वन्य जीवन के संघर्ष और जीव विज्ञान के जटिल नियमों का मेल भी थी।
सालों की निगरानी के दौरान वन विभाग ने यह भी जाना कि ऐसे मामलों में इंसानी हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए। जबकि फंदा किसी इंसानी लापरवाही का परिणाम था, बाघिन ने इसे सहन करते हुए अपने व्यवहार और शरीर को अनुकूलित किया। इस अनुभव ने वन्यजीव संरक्षण नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं को यह सिखाया कि कभी-कभी जीवित रहने की सबसे बड़ी शक्ति प्राकृतिक अनुकूलन और जीवित रहने की इच्छा होती है, न कि तुरंत इंसानी मदद।
अंततः, सुरई की यह बाघिन आज भी जंगल में जीवित है। उसका शरीर कुछ हद तक फंदे के दबाव के अनुसार ढला हुआ है, लेकिन वह अपने शिकार, शावकों की देखभाल और अपने इलाके की सुरक्षा में पूरी तरह सक्षम है। इस कहानी ने वन्यजीव संरक्षण के महत्व, मानव-वन्यजीव संघर्ष और प्राकृतिक अनुकूलन की सीमाओं को उजागर किया। “वायर वाली बाघिन” केवल एक घायल जानवर नहीं है, यह एक जीवंत प्रमाण है कि प्राकृतिक दुनिया में जीवन कठिन परिस्थितियों में भी जारी रह सकता है, और कभी-कभी इंसानी गलती के बावजूद जीवित रहने की क्षमता अद्भुत रूप से विकसित हो जाती है। ([email protected])

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