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भारत में दूध, ‘नॉन-वेज दूध’ विवाद और हमारी बदलती संवेदनाएँ

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भारत में दूध, ‘नॉन-वेज दूध’ विवाद और हमारी बदलती संवेदनाएँ

हालाँकि, यह भी सच है कि भारत में भले ही सीधे तौर पर मीट या बोन मील न दिया जाता हो, लेकिन मवेशियों को जो कैल्शियम और आयरन सप्लीमेंट्स दिए जाते हैं, वे अक्सर पशु-आधारित उपोत्पादों से ही बने होते हैं। इस प्रकार, हमारा डेयरी सेक्टर पूरी तरह से ‘शाकाहारी’ भी नहीं है...

भारत में दूध, ‘नॉन-वेज दूध’ विवाद और हमारी बदलती संवेदनाएँ

Talking Point
अभिषेक दुबे
पर्यावरण एवं पशु अधिकार कार्यकर्ता, नेचर क्लब फाउंडेशन, गोण्डा (उप्र)
भारत दूध उत्पादन में विश्व का अग्रणी देश है, लेकिन इसके बावजूद दूध की गुणवत्ता, उत्पादन व्यवस्था, और पशुओं के साथ होने वाले व्यवहार पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। हमारे देश में अधिकांश डेयरी सेक्टर असंगठित है और लोग 2-4 पशु रखकर दूध बेंचते हैं और कुछ सहकारी समितियों पर आधारित है, जहाँ छोटे और सीमांत किसान अपना दूध बेचते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अधिकांश किसान पौष्टिक और संतुलित चारा उपलब्ध नहीं करा पाते, और गायों को खुले में चरने के लिए छोड़ देते हैं। शहरों और कस्बों में यह स्थिति और भी खराब है, जहाँ गायें अक्सर कूड़ा, प्लास्टिक, और सड़ी-गली चीजें खा लेती हैं।
इसके विपरीत, पश्चिमी देशों कृ विशेषकर अमेरिका, कनाडा, और यूरोप में कृ दूध उत्पादन बड़े, संगठित कॉर्पोरेट फार्मों में होता है। वहाँ दूध देने वाली गायों (डपसबी ब्वूे) और मांस हेतु पाली जाने वाली गायों (ठमम िब्वूे) को अलग रखा जाता है। इनके लिए विशेष चारागाह होते हैं और दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक रूप से तैयार किया गया चारा दिया जाता है। इसी चारे में कई बार पशु-उत्पत्ति वाले तत्व भी मिलाए जाते हैं, जो “नॉन-वेज दूध” विवाद की जड़ हैं।
पशु-आधारित चारा क्या है और क्यों दिया जाता है?
पश्चिमी देशों में, खासकर औद्योगिक डेयरी फार्मिंग में, दूध उत्पादन को अधिकतम करने का दबाव इतना अधिक होता है कि गायों के आहार में अतिरिक्त प्रोटीन और कैलोरी जोड़ने के लिए पशु-उत्पत्ति वाले पदार्थ मिलाए जाते हैं। इनमें शामिल हैं कृ
मीट एंड बोन मीलः मरे हुए पशुओं की हड्डियों और मांस को प्रोसेस करके तैयार किया जाता है।
ब्लड मीलः पशुओं के रक्त को सुखाकर पाउडर के रूप में तैयार किया जाता है।
फिश मीलः मछली और मछली के अपशिष्ट से बना आहार।
चिकन वेस्टः मुर्गी के पंख, मल-मूत्र और अन्य अपशिष्ट
टैलाः मांस प्रसंस्करण से निकला पशु वसा।
सूअर और घोड़े का रक्तः कुछ स्थानों पर प्रोटीन पूरक के लिए।
इनका मुख्य उद्देश्य है दूध उत्पादन तेजी से बढ़ाना, लागत घटाना, और पशु को कम समय में अधिक पोषण देना।
भारत में स्थिति और विरोध
भारत में सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से गाय को पवित्र माना जाता है, और अधिकांश हिंदू व जैन समुदाय चाहते हैं कि गाय को केवल शाकाहारी आहार ही मिले। इसीलिए “नॉन-वेज दूध” शब्द का प्रचलन हुआ, जिसका आशय है ऐसा दूध जो मांसाहारी चारा खाकर पैदा हुआ हो।
भारतीय सरकार ने इस मुद्दे पर पश्चिमी देशों के साथ व्यापार वार्ताओं में स्पष्ट रुख अपनाया है। अमेरिका और यूरोप कई बार यह मांग कर चुके हैं कि भारत अपने डेयरी बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोले और उनके उत्पादों को प्रवेश दे। लेकिन भारत ने इसे ‘रेड लाइन’ मानते हुए साफ कहा है कि वह ऐसे दूध या डेयरी उत्पादों को अनुमति नहीं देगा, जिनमें पशु-आधारित चारा खिलाए गए मवेशियों का दूध शामिल हो, ताकि किसानों की आजीविका भी सुरक्षित रहे और सांस्कृतिक मान्यताओं का भी सम्मान हो। हालाँकि, यह भी सच है कि भारत में भले ही सीधे तौर पर मीट या बोन मील न दिया जाता हो, लेकिन मवेशियों को जो कैल्शियम और आयरन सप्लीमेंट्स दिए जाते हैं, वे अक्सर पशु-आधारित उपोत्पादों से ही बने होते हैं। इस प्रकार, हमारा डेयरी सेक्टर पूरी तरह से ‘शाकाहारी’ भी नहीं है।
पश्चिमी डेयरी मॉडल की नकल
दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए भारत ने श्वेत क्रांति के समय से ही पश्चिमी डेयरी प्रणाली की कई प्रथाएँ अपनाईं। कृत्रिम गर्भाधान, विदेशी नस्ल की गायें, और भारतीय नस्लों के साथ क्रॉस-ब्रीडिंग - ये सभी तरीके पश्चिमी देशों से लिए गए। इन प्रक्रियाओं का उद्देश्य है अधिक दूध उत्पादन, लेकिन इनके चलते पशुओं का प्राकृतिक जीवन-चक्र और स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होता है। यह हमारी पारंपरिक कृषि-पशुपालन प्रणाली और मूल्यों के विपरीत है, जहाँ पशुओं को परिवार का सदस्य मानकर उनकी देखभाल की जाती थी।
हमारी अपनी क्रूरता पर चुप्पी
विडंबना यह है कि हम पश्चिमी देशों के “नॉन-वेज दूध” का विरोध तो करते हैं, लेकिन अपने घर में हो रही पशु-क्रूरता को नजरअंदाज कर देते हैं। भारत आज दुनिया का अग्रणी बीफ निर्यातक और उपभोक्ता बन चुका है, क्योंकि हम सभी भैंसों और बड़ी संख्या में गायों को बूचड़खानों में बेच देते हैं। दूध उत्पादन के लिए मवेशियों को लगातार गर्भाधान, अत्यधिक दूध दोहन, बछड़ों को भूखा रखना, और कृत्रिम गर्भाधान जैसी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। यह सब गहरी शारीरिक और मानसिक यातना है।
इतिहास में भारतीय समाज का मूल सिद्धांत अहिंसा रहा है, और गाय को माँ और देवी का दर्जा दिया गया। लेकिन आज बढ़ती दूध की मांग ने हमें उतना ही क्रूर बना दिया है जितना हम पश्चिमी देशों के संदर्भ में अनैतिक मानते हैं। यदि हम सच में पशु-कल्याण और सांस्कृतिक मूल्यों के पक्षधर हैं, तो हमें केवल “नॉन-वेज दूध” का विरोध करने के बजाय अपने देश में हो रहे इस संगठित और छुपे हुए शोषण के खिलाफ भी आवाज उठानी होगी।
 

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