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वनविहीन भारत! कहाँ खो गई हमारी प्रकृति की संवेदना?

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वनविहीन भारत! कहाँ खो गई हमारी प्रकृति की संवेदना?

ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की 2024 रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2024 में 18,200 हेक्टेयर प्राथमिक वन गंवा दिए। 2002 से 2024 के बीच देश ने 3,48,000 हेक्टेयर प्रमुख आर्द्र, प्राचीन, जैव विविधता से भरपूर जंगल गंवा दिए। भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक बना हुआ है...

वनविहीन भारत! कहाँ खो गई हमारी प्रकृति की संवेदना?

Talking Point
अभिषेक दुबे,
पर्यावरण एवं पशु अधिकार कार्यकर्ता, नेचर क्लब फाउंडेशन, गोण्डा (उप्र)
भारत में वनों की कटाई एक ऐसी त्रासदी बन चुकी है जिसकी गूंज न सिर्फ पर्यावरणीय बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना तक महसूस की जा रही है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों और कहावतों में बार-बार जंगल को जीवनदायिनी बताया गया ‘‘वन बिना जीवन मृगतृष्णा समान है‘‘। अर्थात् जंगल केवल लकड़ी या ईंधन का स्रोत नहीं, बल्कि पानी, हवा, भोजन और जीवन की रक्षा करता है। दुर्भाग्यवश, पिछले कुछ दशकों में हमने अपने जंगलों और हरियाली का निरंतर विध्वंस किया है।
ताजा रिपोर्ट्स व संख्याएँ
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की 2024 रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2024 में 18,200 हेक्टेयर प्राथमिक वन गंवा दिए। 2002 से 2024 के बीच देश ने 3,48,000 हेक्टेयर प्रमुख आर्द्र, प्राचीन, जैव विविधता से भरपूर जंगल गंवा दिए। भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक बना हुआ है। ये संकट सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मध्य भारत, पश्चिमी घाट, हिमालय, हरियाणा जैसे राज्यों में भी तेजी से हरियाली गायब हो रही है। जहाँ भूटान में प्रति व्यक्ति 47,572 पेड़ हैं, वहीं भारत में यह संख्या मात्र 1,381 है। आबादी और पेड़ों के इस असंतुलन ने पारिस्थितिकी को संकट में डाल दिया है। 
पश्चिमी घाट के सदाबहार जंगल, हिमालय के देवदार, उत्तरपूर्व के वनों, मध्य भारत के साल वनों, और सुंदरबन के मैंग्रोव जैसी नायाब प्राकृतिक संपदा लगातार छोटे छोटे टुकड़ों में नष्ट की गई है। उदाहरण के लिए, साइलेंट वैली (केरल), सरिस्का (राजस्थान) और विद्या विहार जंगल (उत्तर प्रदेश) जैसे जंगल तेज शहरीकरण, खनन, बाँध, सड़कों और खेती के विस्तार के लिए उजाड़ दिए गए। डैम परियोजनाओं जैसे भाखड़ा-नांगल, टिहरी, हीराकुंड, और सरदार सरोवर इन विशाल जंगलों को निगल गईं, जहाँ कभी असीम जैवविविधता रहती थी। और अभी ग्रेट निकोबार द्वीप से बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई की तैयारी चल रही है जहां की जैवविविधता बहुत ही अलग, विशिष्ट और संवेदनशील है।
सरकारी आँकड़ों की सच्चाई भी कई रिपोर्टों से बेनकाब होती है। प्रशासन बार-बार ग्रीन कवर की आड़ में बाग-बगीचे, बांस, फलदार पौधे और सड़क किनारे के प्लांटेशन को जोड़ कर फर्जी आंकड़े प्रस्तुत करता है। जबकि प्राकृतिक वन, जैव विविधता और स्वदेशी प्रजातियाँ घटती ही जा रही हैंय इसी के चलते सरकारी दावों और जमीनी सच्चाई में भारी फासला है।
आज के समय में स्थितियाँ इतनी भयावह हैं कि प्राचीन कहावत ‘‘जल ही जीवन है, वन है तो जल है‘‘ अब सच साबित हो रही है। वनों की कटाई के कारण भारत में भूस्खलन, बाढ़, जंगल की आग, जल एवं खाद्यान्न संकट, और मौसम की खतरनाक घटनाएँ इतनी तेजी से बढ़ गई हैं कि अब हर किसी को उनका ख़ामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उत्तराखंड और हिमाचल की पहाड़ियों में बार बार भूस्खलन और बाढ़ आना, महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ के जंगलों में हर वर्ष दो से अधिक महीनों तक आग लगना, मानसून में हो रहे बदलाव से खेती पर बुरा असर, ये सब वनों के कटान के ही दुष्परिणाम हैं। खाद्यान्न और जल संकट भी उसी भयावह स्थिति का हिस्सा हैं।
एक और चिंताजनक तथ्य यह है कि सरकारी सूची में शामिल ‘संरक्षित प्रजातियों‘ में शहरी या ग्रामीण स्तर पर पाए जाने वाले बहुत सारे पेड़ नहीं आते। जैसे सेमल, चिलबिल, बबूल आदि जिसके कारण व्यक्तिगत अवैध कटान एक खामोश महामारी बन चुकी है। बिल्डर, अवैध ठेकेदार लगातार शहरी क्षेत्रों से वृक्ष हटाते जा रहे हैं और कोई निगरानी नहीं। फॉरेस्ट एक्ट के तहत जिस पेड़ को संरक्षित मान लिया गया वो भी कुछ ही बच रहे, बाकी भारी मात्रा में कुचले जा रहे हैं।
भारतीय सरकार ने वन नीति, फॉरेस्ट एक्ट 1980, नेशनल अफॉरेस्टेशन प्रोग्राम जैसी योजनाएँ जरूर चलाई, और आँकड़ों में ‘‘ग्रीन कवर‘‘ बढ़ता दिखाया लेकिन इन आंकड़ों का सच कड़वा है। सरकार अपनी रिपोर्टों में ‘‘ग्रीन कवर‘‘ दिखाकर घोषणाएं करती रहती है, जिसमें बांस, नारियल, केला, फलदार बाग, कॉमर्शियल प्लांटेशन को भी जोड़ लेती है जबकि प्राकृतिक वनों के आंकड़े लगातार घट रहे हैं। प्रशासन द्वारा बार-बार वनों के पुनर्स्थापन और हरियाली बढ़ाने की झूठी तस्वीरें और आँकड़े पेश किए जा रहे हैं, आम प्रकृति प्रेमी और विशेषज्ञ इससे चिंतित हैं।
यहाँ एक जरूरी दार्शनिक भेद समझना चाहिए। फारेस्ट कवर यानी जैवविविधता से भरपूर, प्रादेशिक, स्वदेशी वृक्षों से बने पारिस्थितिक क्षेत्र, जहाँ जानवर, पक्षी, कीड़े, पौधे अपनी जटिल पारिस्थितिकी बनाते हैं। दूसरी ओर ग्रीन कवर का अर्थ है किसी भी क्षेत्र में पेड़ या पौधों का होना, चाहे वे फलदार बाग हों, बांस के जंगल हों या सड़क किनारे के इमारती पौधे होंय ये पारिस्थितिकी, मृदा संरचना या जल संरक्षण में योगदान नहीं देते। आज भारत में आँकड़ों के खेल में ग्रीन कवर बढ़ाने की झूठी खबरें दी जा रही हैं, जबकि फारेस्ट कवर में नियमित गिरावट आ रही है।
अब समय आ गया है कि हम पुरानी कहावत को याद करें कि ‘‘पेड़ बचे तो जल बचे, जल बचे तो कल बचे।‘‘ यदि हमने वन संरक्षण, जागरूकता, स्वदेशी ज्ञान, तकनीक, और नीति बदलाव के लिए ईमानदार प्रयास नहीं किए तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी। अभी खोया हुआ कुछ जंगल वापस पाना संभव है, लेकिन अगर जंगलों को नष्ट करने की यही वर्तमान रफ्तार बनी रही तो पानी, हवा, भोजन और जीवन स्वयं एक मृगतृष्णा बन जाएगा।
आगे क्या करें? जागरूक नागरिक की भूमिका
इन हालात में, आम लोगों को अपनी भूमिका और जिम्मेदारी समझनी चाहिए। सरकारों का सचेत रहना जरूरी है लेकिन यदि जनता आगे आए तो समाज में परिवर्तन संभव है। आज जरूरी है कि देश में बड़े पैमाने पर जन आंदोलन के रूप में सामुदायिक पौधारोपण अभियान चलाया जाए। लोग स्वयं और समाज मिलकर पेड़ लगाएँ तथा उनकी रक्षा करें। स्थानीय स्तर पर गैर कानूनी कटान के खिलाफ आवाज बुलंद करें, सूचना और शिकायत तंत्र का प्रयोग करें, वन विभाग और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करें और उनके विरुद्ध संगठित होकर काम करें और वन भूमि के संरक्षण की आवाज उठाएँ।
साथ ही, सरकार को चाहिए कि अब और एक भी जंगल, वन क्षेत्र या प्राकृतिक हरियाली का विनाश बिल्कुल न होने दे। सरकारी योजनाओं एवं विकास के नाम पर लगातार हो रहे वन कटान, मंजूरी देने की नीति और आँकड़ों की बाजीगरी बंद होनी चाहिए। “जितना हरियाली बची है उसे अक्षुण्ण और सुरक्षित रखना अब राष्ट्र की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए‘‘, यही सच्ची देशभक्ति और मानवता की पहचान है। यदि भारत सरकार ने अब भी प्राकृतिक जंगलों का विनाश होने दिया, तो भविष्य में न तो धरती सुरक्षित रहेगी और न ही मानवता की साँसें। ([email protected])
 

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