Specialist's Corner
अभिषेक दुबे,पर्यावरण एवं पशु अधिकार कार्यकर्ता, नेचर क्लब फाउंडेशन, गोण्डा (उप्र)
अरबों वर्ष पहले जब जीवन ने पृथ्वी पर अपनी पहली किरण दिखाई, तब उसका स्वरूप एककोशिकीय जीव का था। उस जीव के रूप में अनजाने से शुरू हुआ अस्तित्व निरंतर विकसित होता रहा, जीवन स्वयं को बढ़ाता और संवारता रहा और अधिक जटिल, विविध और सुरक्षित बनाता रहा। यह जीवन यात्रा एक धीमा, पर अटल प्रवाह है जिसमें हर जीव, चाहे वह सूक्ष्म कीट हो या विशाल मानव सभी अपनी भूमिका निभाने की जिम्मेदारी रखते हैं। मानव इस विशाल जीविलोक का एक तंतु हैय न कि कोई पृथ्वी का स्वामी, न ही कोई विशेष श्रेष्ठ प्राणी। लेकिन अरबों वर्षों की जीवन की इस यात्रा में इंसानों के आगमन के बाद हमने जीवन के विकास, विविधता, सुरक्षा के विरुद्ध ही काम करना शुरू किया जिसने आज धरती को जलवायु और जैवविविधता के आपातकालीन दौर में लाकर खड़ा कर दिया है।
इसलिए अब ये सही वक्त है कि हम मनुष्य के जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पहचानें जिसके लिए हमें अरबों वर्ष पहले शुरू हुए जीवन के उद्देश्य से ही समझ सकते हैं। मानव के उद्देश्य को समझने के साथ यह भी समझना अत्यंत आवश्यक है कि हमारा जीव जगत में क्या स्थान है। हम अन्य प्राणियों से कितना जुड़े या अलग हैं।
यदि प्रकृति का हम अवलोकन करें तो हम यह समझ पाते हैं कि इस जीव जगत के सभी जीवों का अस्तित्व समान रूप से महत्व रखता है। मानव केवल इसलिए श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि उसकी वर्तमान क्षमता अन्य से बेहतर है क्योंकि ये उसी जीवन में विकास का परिणाम मात्र है जिसे इस अवस्था में पहुंचने में सभी जीवों ने अरबों वर्ष तक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया, मनुष्य स्वयं जीवन का मूल नहीं है। कीट, पशु, वनस्पति और मानव सभी उस प्राकृतिक व्यवस्था के समकक्ष अंग हैं, जिनमें जीवन के तत्व समान रूप से निहित हैं। जीवन से जुड़ाव, अस्तित्व की खोज, स्वयं की रक्षा, पुनरुत्पादन और आनंदित रहना कृ यह उन गुणों में से हैं जो हर जीव में पाये जाते हैं और ये कोई श्रेष्ठता का आधार नहीं है।
जीवन की यह एकरूपता हमें न केवल जीवित रहने का कर्तव्य प्रदान करती है, बल्कि प्रत्येक प्राणी के आत्मसम्मान, अधिकार और अस्तित्व के सम्मान की भी शिक्षा देती है। जैसे एक कीट पृथ्वी के चक्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उसी प्रकार मनुष्य समेत कोई भी प्राणी किसी से कम नहीं।
जीवन का उद्देश्य भोगवादी अस्तित्व नहीं, बल्कि सतत विकास, संतुलन स्थापित करना, और सह-अस्तित्व बनाए रखना है। मानव की चेतना उसे जैवतंत्र एक सक्रिय सहभागी बनाती है और एक बड़ी जिम्मेदारी देती हैय जो केवल अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व को और अधिक मजबूत बनाने लिए जिम्मेदार है। यहाँ मानव का उद्देश्य प्रकृति के साथ युद्ध नहीं, बल्कि साथ मिलकर चलना, और प्रत्येक जीव के समान अधिकार और सम्मान सुनिश्चित करना है। यह लक्ष्य हमें अहंकार से ऊपर उठकर समग्र हित में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।
जब हम मानव को प्रकृति का कोई स्वामी या प्रबंधक नहीं मानते, बल्कि जीवन के एक समान आधार पर खड़ा जीव मानते हैं, तो उसकी जिम्मेदारी और अधिक स्पष्ट हो जाती है। मानव को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, अन्य जीवों के अस्तित्व का भी सम्मान करना होगा। मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों का लालच छोड़कर, पर्यावरण के साथ सहजीवन स्थापित करना होगा जो कि पूरे धरती की बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है। यह जिम्मेदारी मानव के जीवन के उद्देश्य का अभिन्न हिस्सा है। हम अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें, सबका सम्मान करें, स्वयं खुश रहें और किसी भी प्राणियों को दुःख देने से हम यथासंभव बचें, यह मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य प्रतीत होता है।
प्राचीन दार्शनिक जैसे स्पिनोजा और भारतीय दर्शन हमें यह सिखाते हैं कि मानव और प्रकृति के बीच कोई वास्तविक विभाजन नहीं है। प्रत्येक जीव प्रकृति के विशाल प्राणीबोध का अंग है, जिसमें आत्मा और शरीर के पारस्परिक संबंध शामिल हैं। स्पिनोजा के अनुसार, सभी जीव प्रकृति का अंश हैंकृजो जीवन का सम्पूर्ण स्वरूप है। इस एकात्मता की समझ मानव को यह सिखाती है कि सभी जीवन के रूप बराबर हैं और किसी को भी दुसरे से ऊंचा नहीं माना जा सकता। मानव जीवन का उद्देश्य तब सार्थक हो पाता है जब वह यह स्वीकार कर ले कि उसका अस्तित्व प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, न कि उससे अलग या ऊपर।
विज्ञान हमें बताता है कि जीवन जटिल और अनंत प्रणालियों का योग है, जिसमें कोशिकाओं का संगम, जैव रासायनिक क्रियाएं और पारिस्थितिकी तंत्र शामिल हैं। जीवन की यह प्राकृतिक प्रक्रिया, स्वयं में, उद्देश्यपूर्ण हैकृजो निरंतरता, सामंजस्य और विकास की ओर बढ़ती है। मानव, इसके एक अंश के रूप में, न केवल स्वयं को बल्कि समस्त जीवन को स्थायी बनाने की भूमिका निभाता है। दार्शनिक दृष्टि से यह कार्य मानव के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैय जब मानव अपने क्रियाकलापों को सिर्फ अपनी आजीविका चलाने से ऊपर उठाकर, स्वतंत्र चेतना के साथ जोड़ता है, तो जीवन का उद्देश्य पूरा होता है।
इस व्यापक और दार्शनिक दृष्टिकोण से, मानव जीवन का कोई विशेष अधिकार या श्रेष्ठता का दावा नहीं हैय बल्कि यह जीवन के अनुरूप जिम्मेदारी और सम्मान का भाव है जो मानव को परिभाषित करता है। जीवन के समान रूपों में एकता और समानता की चेतना के साथ, मनुष्य को चाहिए कि वह प्रकृति के समतुल्य एक जीव के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करे। मानवता की असली महानता यहाँ निहित हैकृजहाँ वह अपनी बुद्धि, संवेदना और कर्म के माध्यम से सम्पूर्ण जीवन की गरिमा को पहचानता है, उसे संरक्षित करता है, और अपने अस्तित्व को उस जीवन श्रृंखला के संतुलन और समृद्धि के साथ जोड़ता है जिसमें सभी जीव समान अधिकार और सम्मान के पात्र हैं।
Leave a comment