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Vijay Kumar Mishra

TreeTake is a monthly bilingual colour magazine on environment that is fully committed to serving Mother Nature with well researched, interactive and engaging articles and lots of interesting info.

Vijay Kumar Mishra

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Vijay Kumar Mishra

धरा का ध्वंस
श्री विजय कुमार मिश्र

स्वर्गीय विजय कुमार मिश्र की यह लघु कथा सम्पूर्णानन्द वैज्ञानिक कहानी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक से पुरस्कृत की गयी थी और प्रकाशन शाखा सूचना विभाग उत्तर प्रदेश द्वारा १९५८ में प्रकाशित भी की गयी थी। प्रथम संस्करण में ही इसकी ५००० प्रतियां छपी थीं । तत्कालीन सूचना निदेशक भगवतीशरण सिंह ने इसका प्राक्कथन लिखा था। लेखक वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने अनेक हिंदी उपन्यास, कहानियां एवं निबंध आदि भी लिखे थे । इस कहानी से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ग्लोबल वार्मिंग, जल वायु परिवर्तन व उसके दुष्प्रभाव का सटीक पूर्वाभास लेखक ने १९५८ में ही कर लिया था जब विश्व में किसी भी अन्य व्यक्ति या वैज्ञानिक ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी (यह एक प्रामाणिक तथ्य है)।

डा चंद्र शेखर से मेरा पुराना परिचय है। उनके पिता स्थानीय विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर थे और हमारी कोठी के पड़ोस में ही रहते थे। पांच वर्ष की वय में ही शेखर से मेरी मित्रता हुयी, जो बाईस वर्ष की अवस्था में विश्वविद्यालय छोड़ने तक प्रगाढ़तम बनी रही। उसके उपरांत शेखर तो सरकारी छात्रवृति पाकर भौतिक विज्ञान की उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए और मैं एक विख्यात पत्र के सम्पादकीय विभाग में सहकारी हो गया। पहले कुछ दिनों तक हम लोगों में नियमित रूप से पत्र व्यवहार होता रहा, किन्तु कालांतर में पारिवारिक झंझटों तथा अन्य कारणों से इस उत्साह में शिथिलता पड़ने लगी और इधर पैंतीस वर्षों से तो हम दोनों ने एक दुसरे के विषय में केवल समाचार पत्रों द्वारा ही जाना सुना है, परस्पर दर्शन का सुयोग अथवा पत्र व्यवहार का अवसर ही नहीं मिला। इस बीच भाग्य की प्रेरणा से मैं देश के एक अत्यंत ही प्रतिष्ठित और प्रभावशाली पत्र का प्रधान सम्पादक हो गया और शेखर ने भौतिक विज्ञान में अनेक रहस्यपूर्ण अन्वेषण करके अपनी अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा से समस्त जगत को चमत्कृत कर दिया।
पैंतीस वर्ष के दीर्घ काल के उपरांत एक दिन मुझे अकस्मात ही शेखर का एक तार मिला की मैं जैसे भी हो समय निकाल कर उनके पास पहुंचूं और उनका आतिथ्य स्वीकार करूँ। देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति तथा अंतराष्ट्रीय कूटनीतिक अखाड़े के दांव पेंच इस तीव्रगति से बदल रहे थे कि पत्र का कार्य किसी अन्य पर छोड़कर इस प्रकार बाहर जा सकना उन दिनों मेरे लिए असंभव सा ही था। फिर भी पैंतीस वर्षों से बिझड़ै हुए अपने इस महान वैज्ञानिक मित्र के आग्रहपूर्ण अनुरोध को टाल सकना भी मेरे लिए संभव न हुआ और दुसरे ही दिन विमान द्वारा मैं शेखर के नगर को रवाना हो गया।
यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे लज्जा नहीं है कि शेखर को देखकर मैं उसे पहचान ही न सका। परन्तु उन्होंने मुझे तत्काल पहचान लिया। वय के अंतर ने मेरे शरीर की गठन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया था, किन्तु पहले का कांतिमान मुख वाला मोटाताजा शेखर इन दिनों बड़े बड़े बालों और लम्बी दाढ़ी वाला दुबला पतला वृद्ध हो चला था। मैंने मन ही मन कहा कि इस विश्वविख्यात वैज्ञानिक ने अपनी अनवरत साधना से जगत का चाहे जितना उपकार किया हो, अपने स्वास्थय के साथ तो उसने न्याय नहीं किया है। भोजन इत्यादि के पश्चात शेखर ने एक मोटा सा सिगार मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा ‘जब मेरा तार तुम्हे मिला था, उस समय तुम बर्मी राजदूत के साथ महत्वपूर्ण राजनीतिक विषयों पर कुछ गोपनीय चर्चा कर रहे थे।’
अपार विस्मय से मेरे नेत्र कपार तक फैल गये। उक्त राजदूत से मैं जो चर्चा कर रहा था, उसे मेरे कमरे की दीवारें भी न सुन सकी होंगी। तब वहां से ८०० मील दूर बैठे हुए इस महाव्यस्त एवं साधनारत वैज्ञानिक को उसका पता कैसे चला ? मैं अचकचा कर शेखर के मुख की ओर देखने लगा।
‘मैं त्रिकालज्ञ हो गया हूं, त्रिकालज्ञ,’ शेखर ने हँसते हुए कहा, ‘अब मैं सहज ही प्रमाणित कर सकता हूँ कि प्राचीन ऋषियों के त्रिकालज्ञ होने की कहानिया कपोल कल्पित नहीं और आधुनिक विज्ञान भी मनुष्य को उसी अवस्था में पहुंचा सकता है। मैंने तुम्हें इसीलिए बुलाया है, सुबोध, कि तुम अपने विख्यात पत्र द्वारा संसार में भारतीयों की इस गौरवशाली परंपरा का प्रचार करो ---’ ‘परंपरा ?’ मैंने बीच ही में टोक कर पूछा, ‘क्या यह परंपरा अभी जीवित है?’ ‘मुझमें ही तुमने उस शक्ति का आभास देखा है ,’ शेखर ने कहा , ‘किन्तु मेरी शक्ति तो अभी बहुत कुछ सीमित है। वह कुछ स्थूल यंत्रों, कुछ मानसिक प्रक्रियाओं तथा कुछ कुछ आत्मशक्ति अथवा इच्छा शक्ति के आधार पर कार्यान्वित होती है, परन्तु मेरा दृढ विश्वास है कि भारत में अब भी ऐसे योगी महात्मा विद्यमान हैं जो केवल सूक्ष्म आत्मशक्ति के सहारे ही त्रिकाल का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और मेरा विश्वास है कि किसी न किसी दिन मैं उनमे से अनेक को खोज लूँगा।’
मैं खुले नेत्रों से शेखर की ओर देखता ही रह गया। मेरी ओर ध्यानपूर्वक देखते हुए शेखर ने कहा, ‘तुम्हें संशय हो रहा है सुबोध परन्तु विज्ञानं के एक साधारण सिद्धांत के आधार पर ही तो मैंने इस अलौकिक विश्वास की भित्ति खडी की है।’ ‘विज्ञान का एक साधारण सिद्धांत है कि विश्व में कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता, वह केवल रूप बदलता है,’ शेखर कहते गये, ‘प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी परिवर्तित रूप में कहीं न कहीं विद्यमान रहता है। संसार में जो कुछ हुआ है, होता है अथवा होगा, वह भी इसी सीमाएँ महाशून्य की अनंत नीलिमा में कहीं न कहीं अंकित है। उसके इस अन्तर्हित रूप का नाम है समय अथवा काल। काल के रूप में विश्व के आदि से लेकर अंत तक की घटनाएं -- प्रत्येक शान की एक एक घटना -- महाकाश से नीलपत पर कहीं न कहीं चित्रित अवश्य हैं। जो घटना जितनी पुरानी अथवा सुदूर भविष्य में है, वह हमसे उतनी ही डोर है। इस दूरी को मैं गति कहता हूँ-- समय अथवा काल की गति।’ ‘अब इतना समझ लेना तो सुबोध तुम्हारे लिए भी सहज है,’ शेखर ने कहा, ‘कि यदि हम समय की गति से भी तीव्र गति का अन्वेषण कर लें तो निःसंदेह भूत और भविष्य की निकटवर्ती अथवा सुदूरतम घटनाओं का ज्ञान तत्काल प्राप्त कर सकते हैं। अब प्रश्न रह जाता है कि समय की गति से भी अधिक तीव्रगामी शक्ति क्या हो सकती है ? मैंने स्थिर किया कि मनुष्य का मन सर्वाधिक तीव्रगामी है और यदि उसे किसी प्रकार नियंत्रित किया जा सके और साथ ही महाविद्युत की चरमशक्ति का भी केन्द्रीकरण करके उसे स्वेच्छापूर्वक संचालित किया जा सके तो समय कि गति को पार कर सकना असंभव न होगा। मैंने इसी सिद्धांत को लेकर प्रयोग प्रारम्भ कर दिए और ईश्वर की दया से मुझे सफलता भी प्राप्त हो गयी। मैं अब किसी भी मनुष्य को अपना माध्यम बनाकर उसके द्वारा भूत और भविष्य का हाल जान सकता हूँ तथा वर्तमान को भी पढता रह सकता हूँ।
‘यह तो ठीक वैसा ही है जैसा कि हिप्नॉटिज्म जानने वाले किया करते हैं। वे भी तो अपने माध्यम द्वारा बहुतेरा अज्ञात हाल बता देतें हैं,’ मैंने शंका की। ‘तुम्हारा सोचना अनुचित नहीं है,’ शेखर ने समाधान किया, ‘किन्तु हिप्नोटिस्ट केवल वर्तमान का ही अज्ञात हाल बता सकता है। उसका माध्यम केवल उसी वास्तु तक पहुँच सकता है जो स्थूल अस्तित्व रखती हैं। सूक्ष्म ब्रह्माण्ड उनकी गति से परे है। सूक्ष्म जगत में पहुँचने के लिए मुझे कुछ विशेष प्रयोग करने पड़े हैं। अच्छा चलो , मेरी प्रयोगशाला में चलो, जहाँ मैं तुम्हें इस सम्बन्ध में कुछ नमूने दिखलाऊंगा।’ शेखर के साथ मैं उसकी प्रयोगशाला में पहुंचा। वे मुझे एक बड़े से कमरे में ले गये जिसमें अनेक द्वार थे। इनमें से एक द्वार पर वे ठहर गये। उस द्वार के खोले जाते ही जिस अलौकिक दृश्य पर मेरी नजर पड़ी, वह मुझे स्तम्भित कर देने के लिए पर्याप्त थी।
एक कुर्सी पर एक व्यक्ति बैठा हुआ था । उसके नेत्र बंद थे, उसका शरीर इस प्रकार शिथिल था मानों वह स्वप्नाविष्ट हो, किन्तु उसे देखकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ था क्योंकि यह तो मैं देखते ही समझ गया था कि यही व्यक्ति इस अपूर्व वैज्ञानिक का माध्यम है। इसके पूर्व भी मैं अनेक ऐसे ही माध्यमों को हिप्नॉटिस्टों द्वारा स्वप्नाविष्ट किये जाते देख चुका था । मुझे आश्चर्य तो उस कमरे की बनावट और सजावट देखकर हुआ था। इस कमरे में एक भी खिड़की नहीं थी, छत के पास एक छोटा सा रोशनदान अवश्य था, सम्भवतः प्रकाश और शुद्ध वायु के लिए। जिस कुर्सी पर शेखर का माध्यम बैठा था , उसके अतरिक्त कमरे में अन्य कोई फर्नीचर न था । एक माइक्रोफोन माध्यम के सामने रखा था जिसका माउथपीस माध्यम के मुख से लगभग तीन इंच की दूरी पर स्थित था । माध्यम के सिर पर एक ईरफोन ( जैसा टेलीफोन ऑपरेटर पहना करते हैं ) कैसा हुआ था। इसे भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि कमरे की छत दीवारों तथा फर्श पर भी एक प्रकार की श्वेत धातु का आवरण चढ़ा हुआ था। मुझे इस धातु की ओर विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पाकर शेखर ने बताया कि वह श्वेत शीशा है जो विचार तरंगों का सबसे कम संचालक है और माध्यम को वाह्य विचारों के प्रभाव से अधिकाधिक मुक्त रखने में सहायक होता है। इस प्रकार माध्यम जब अपने सामने लगे हुए माइक द्वारा शेखर के प्रश्नों का उत्तर देता है तो वाह्य विचारों से सर्वथा नहीं तो अधिकाधिक मुक्त रहने के कारण वह सत्य अनुभवों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं बताता।
मेरे यह पूछने पर कि शेखर ध्वनि संचार यंत्रों द्वारा ही माध्यम से क्यों बात करता है, प्रत्यक्ष उपस्थित होकर क्यों नहीं करता , उस वैज्ञानिक ने उत्तर दिया कि प्रत्यक्ष उपस्थित रहने में आशंका हो सकती है कि माध्यम उपस्थित व्यक्ति कि विचार तरंगों को ग्रहण कर ले और ये विचार तरंगे उनके मन को दूषित कर बैठें। ‘पर यह रोशनदान तो खुला है,’ मैंने उसका ध्यान आकर्षित किया, ‘क्या इससे बाहर खड़े व्यक्तियों की विचार तरंगे तुम्हारे माध्यम को प्रभावित नहीं कर सकतीं?’ ‘किन्तु भौतिक विज्ञान का सिद्धांत है कि ये तरंगे सदा ऊपर तथा अन्य दिशाओं में चलती हैं, नीचे की दिशा में उनकी गति अत्यंत मंद तथा शिथिल रहती है,’ शेखर ने उत्तर दिया। शेखर ने उस कमरे से निकल कर उसमें ताला लगा दिया और एक अन्य कमरे में आ बैठे, जिसके एक कोने में एक छोटी सी गोल मेज पर एक लाउडस्पीकर रखा था। उन्होंने बताया कि इस लाउडस्पीकर का सम्बन्ध हरीश (उनका माध्यम) के समक्ष स्थित माइक से है और इसी के द्वारा उसकी ध्वनि यहाँ प्रसारित होगी। शेखर जिस कुर्सी पर बैठे, उसके सामने भी एक माइक था। उन्होंने बताया कि इस माइक का सम्बन्ध हरीश के कानों में लगे हुए इयरफोन से है और इसके द्वारा मेरी आवाज उसे सुनायी देगी।
इतना कहकर शेखर उस यंत्र के समक्ष मुख कर के बोले, ‘हरीश, तुम मेरी आवाज सुन रहे हो ?’ ‘जीहां‘, तत्काल उत्तर आया, मानों कोई घोर नींद में सोया व्यक्ति बोल रहा हो। ‘ देखो, तुम सृष्टि के आदिकाल के उस भाग में हो जब धारा पर वानस्पतिक उत्पादन हो चुका है और सचल जीवधारी भी उत्पन्न हो चुके हैं। तुम क्या देखते हो?’ कुछ देर निस्तब्धता रही। फिर महाशून्य के किसी सुदूरवर्ती भाग से आता हुआ विचित्र एवं धीमा किन्तु स्पष्ट स्वर सुनायी दिया। शब्द स्पष्ट थे किन्तु उच्चारण अद्भुत था। शेखर ने धीरे से बताया कि माध्यम की भाषा पर तत्कालीन भाषाहीनता का प्रभाव पड़ रहा है। ‘विचित्र दृश्य है,’ स्वर कहता गया, ‘धरा एक घोर जंगल है जहाँ उर्वर मैदान में घनी वृक्षावलियाँ और लम्बी घासें जमीं हुईं हैं और सूखे मरुस्थलों में कटीले झंखाड़ उग रहे हैं। समुद्रों के किनारे तथा नदियों के तट के निकटवर्ती प्रदेश में जलचरों का राज्य है और अन्य स्थानों में वनचरों का। मनुष्य भी एक प्रकार का वनचर ही है और अभी अन्य वनचरों पर उसका प्राधान्य नहीं स्थापित हुआ है क्योंकि वह निर्बुद्ध है और बल में अन्य वनचरों का सामना नहीं कर सकता। वह वृक्षों के पत्ते, पौदे की जड़ें तथा मछलियां और अन्य प्रकार के छोटे मोटे जीव जंतु मार कर खाता और नंगा घूमता है।
‘अच्छा , अब तुम उस काल में हो हरीश जिसे कलियुग कहते हैं, शेखर ने माध्यम को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘इस युग के प्रायः ढाई सहस्त्र वर्ष बीत चुके हैं । सिकंदर ने झेलम पार कर लिया है और पुरू की सेनाओं से उसका संघर्ष हो गया है। क्या देख रहे हो ?’ ‘पुरू की सेनाओं कि मार से ग्रीक सेना की दक्षिण पंक्ति ध्वस्त हो गयी है और उसी के पार्श्व में सिकंदर अपने अश्वारोहियों को, अपने भागते सैनिकों को घेर कर एकत्र करने का आदेश दे उन्हें सम्बोधित कर रहा है।‘ ‘तुम्हीं तो सिकंदर हो, भाषण दो , शेखर ने जल्दी से कहा और माध्यम का स्वर एकबारगी ही लड़खड़ा गया। फिर एक ऐसी ध्वनि सुनायी दी जैसे उसे कोई कष्ट हुआ हो। उसके उपरांत लाउडस्पीकर से एक विचित्र भाषा में अद्भुत स्वरलहरी प्रवाहित होने लगी जिसका एक अंश भी मैं न समझ पाया किन्तु जिसकी उत्तेजनापूर्ण और प्रभावकारी ध्वनि वक्ता के शौर्य और सहस का प्रतीक थी।
तभी शेखर ने मुझसे कहा ‘चलो तुम्हें एक और तमाशा दिखाऊं‘। दोनों शीघ्रता से बाहर आये। माध्यम के कमरे के द्वार के पार्श्व में एक गुप्त खिड़की थी, जो एक स्विच दबाते ही खुल गयी, फिर भी खिड़की श्वेत शीशे के ही एक पारदर्शक से ढंकी रही ताकि खिड़की खुलने पर भी बाहर की विचार तरंगे भीतर प्रविष्ट न हो सकें। मैंने पारदर्शक से देखा कि जिस कुर्सी पर हरीश बैठा हुआ था उसपर एक अन्य ही व्यक्ति विराजमान है जिसके मुख की आकृति प्रायः वैसी ही थी जैसी इतिहास की पुस्तकों में पुराने यूनानियों की मिलती है। उसकी ऊंचाई सात फुट से कम न होगी और उसके मुख के सामने रखा हुआ माइक काफी नीचा पड़ जाने से ही उस कमरे में उसकी ध्वनि कुछ अस्पष्ट सी सुनायी पड़ रही थी। उसके बाल लम्बे तथा अत्यंत घुंघराले थे और नाक काफी लम्बी तथा नुकीली थी। नेत्र बड़े बड़े थे और शरीर की गठन अत्यंत शक्ति संपन्न प्रतीत होती थी।
‘हे ईश्वर !’ मेरे मुख से निकला और मैंने व्यग्रता से पूछा, ‘और हरीश को क्या हुआ ?’
‘यह हरीश ही है,’ शेखर बोले, ‘किन्तु विचार तरंगों का उसपर इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि उसका मस्तिक्ष उसे सिकंदर के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता। मस्तिक्ष द्वारा आत्मा पर विजय पा लेना ही तो मेरे प्रयोग की सफलता है। जिस समय इसने सृष्टि के आदिकाल का वर्णन किया था, उस समय तुम इसे देखते । अस्तु, इसके अतिरिक्त तो तुम देख ही सकते हो कि यह व्यक्ति सिकंदर हो या तैमूर, इसके शरीर पर वस्त्र तो हरीश के ही हैं।’ हम पुनः उस कमरे में लौट आये । लाउडस्पीकर की ध्वनि अस्पष्ट तथा धीमी हो गयी थी। उसको लक्ष्य कर शेखर ने कहा कि माध्यम अब थक गया है , अपार विद्युतबलबों के संघर्षण से वह शिथिलप्राय हो रहा है। उसे कुछ काल के लिए विश्राम देना आवश्यक है। प्रायः १० मिनट बाद शेखर ने पुनः प्रश्न किया, ‘हरीश तुम मेरी आवाज सुन रहे हो ?’ ‘जीहां‘ स्वर इस बार स्पष्ट और ताजा था। ‘अब तुम कलियुग के तृतीय चरण में हो। क्या देख रहे हो तुम ?’ ‘पृथ्वी का स्वरुप अत्यंत परिवर्तित हो गया है,’ माध्यम ने बताया, ‘उसका आकार यद्यपि अभी भी गोल है, किन्तु समुद्र तथा भूमि का नक्शा बहुत बदल गया है ध्रुवों का केंद्र अपने स्थान से खिसक गया है और उत्तरी ध्रुव उस स्थान पर आ गया है जहाँ तुम्हारे समय का अलास्का था। जिसे तुम साइबेरिया, मंगोलिया और चीन कहते थे, उसका अधिकांश भाग एक महासमुद्र में विलीन हो चुका है। स्वयं तुम्हारे देश का स्वरुप बदल गया है। उसका आकार अब एक डमरू सरीखा है जिसके दक्षिणी पूर्वी कोण पर सà¤

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