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रेल की टक्कर के बाद हाथी के बच्चे का नया जीवनः बानी की प्रेरणादायक कहानी

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रेल की टक्कर के बाद हाथी के बच्चे का नया जीवनः बानी की प्रेरणादायक कहानी

टक्कर इतनी भयानक थी कि बानी के शरीर को कई स्तरों पर नुकसान पहुँचा। रीढ़ की हड्डी (स्पाइन), सूंड, माथे और कमर के निचले हिस्से (lumbo & sacral region) में गंभीर फ्रैक्चर थे। पिछले दोनों पैरों की मांसपेशियाँ बुरी तरह क्षतिग्रस्त होकर कमजोर (muscular atrophy) हो गई थीं...

रेल की टक्कर के बाद हाथी के बच्चे का नया जीवनः बानी की प्रेरणादायक कहानी

Specialist's Corner

प्रशान्त कुमार वर्तमान में उत्तराखण्ड वन विभाग में वरिष्ठ परियोजना सहयोगी (वन्यजीव) के पद पर कार्यरत हैं तथा पिछले सात वर्षों से वन्यजीव अपराध नियंत्रण एवं संरक्षण में प्रभावी शोध एवं विश्लेषण कार्य कर रहे है। इन्होंने लगभग पन्द्रह हजार से अधिक वन कर्मियों को वन्यजीव फॉरेंसिक एवं वन्यजीव संरक्षण विषय में प्रशिक्षित किया है तथा पांच सौ से अधिक प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन भी किया है। प्रशान्त कुमार, फॉरेंसिक विज्ञान में बीएससी तथा एमएससी है एवं वाइल्डलाइफ फॉरेंसिक्स में फील्ड के अनुभवी हैं।

भारत में रेल‑नेटवर्क की घनी जाली और वनक्षेत्रों की संकीर्ण होती सीमाएँ एक जटिल और अक्सर दर्दनाक वन्यजीव टकराव का कारण बनती हैं। वर्षों से ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जिनमें हाथी, बाघ, तेंदुआ, हिरण, सांप और अन्य जंगली प्रजातियाँ रेलवे लाइन पर आकर चोटिल या मृत पाई गईं। विशेषकर हाथी जैसे बड़े स्तनधारी जिनकी प्रकृति घुमक्कड़ी और प्रवास‑रूट (corridors)  निश्चित होते हैं, रेल पटरियों पर अचानक आने व तेज चलती ट्रेनों से होने वाली टक्करों के प्रति संवेदनशील हैं। परिणाम केवल जंगली प्रजातियों की मौत ही नहीं हैं, यह पारिवारीक संरचनाओं के टूटने, प्रजनन‑क्षमता पर असर और स्थानीय पारिस्थितिकी‑तंत्र में परिवर्तन का कारण भी बनता है। साथ ही, इंसानी‑आर्थिक लागतें (ट्रेन की क्षति, देरी, और स्थानीय समुदायों के नुकसान) भी बढ़ती हैं, जिससे यह विषय सार्वजनिक नीतियों और व्यवहारिक समाधान दोनों के लिए आवश्यक बन जाता है।
अब तक लागू किए गए और प्रस्तावित रोकथाम‑उपायों में यह शामिल हैः रेल रूट्स के ‘हॉटस्पॉट’ चिन्हित कर स्पीड‑लिमिट लगाना, संवेदनशील जगहों पर फेंसिंग‑व अंडरपास बनाना, समुदाय‑आधारित निगरानी और जल्दी रिपोर्टिंग, ट्रेन चालक‑अलर्ट सिस्टम (animal detectors, thermal/IR  कैमरे और AI‑आधारित चेतावनी), वन विभाग और NGOs का फील्ड‑लेवल पर सहयोग, तथा दीर्घकालिक में प्राकृतिक प्रवास‑मार्गों का संरक्षण। भारत में Project Elephant, विभिन्न राज्य वन नीतियाँ और कुछ NGOs (जैसे Wildlife SOS) ऐसे मामलों में सक्रिय हैं, पर समस्या का दायरा बड़ा है और सावधानी, नीति‑समन्वय व संसाधन दोनों जरूरी हैं। बानी की कहानी इसी व्यापक संदर्भ का एक मानवीय (और जंगली) चेहरा है, एक नन्ही हथिनी जिसकी पटरी पर चोट और बाद की पुनरुत्थान यात्रा हमें यह याद दिलाती है कि तकनीकी प्रगति और वन्यजीवन के संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की तीव्र आवश्यकता है।
‘बानी’ का आगमन और परेशानियों का आरंभ 
साल 2024 ठण्ड की एक सामान्य सुबह उत्तराखंड के जंगलों में एक असामान्य, और दर्दनाक कहानी ने जन्म लिया। कहानी एक नन्ही हथिनी की, जो अभी अपने जीवन की शुरुआत में ही थी। लगभग नौ महीने की मासूम उम्र में, जब बच्चे चलना सीखते हैं, अपनी माँ के पीछे-पीछे दुनिया को पहचानना शुरू करते हैं, तभी एक हाथी शावक, जो बाद में ‘बानी’ नाम से पहचानी गई, अपने झुंड के साथ जंगल के किनारे से गुजरते रेलवे ट्रैक पर पहुँच गई। ट्रैक पार करना हाथियों के लिए कोई नई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन समय, दृश्यता और किस्मत, तीनों ने उसका साथ नहीं दिया। एक तेज रफ्तार ट्रेन आई, और बानी उससे सीधी टकरा गई। उसी समय बानी के साथ एक अन्य हथिनी की तत्काल मौत हो गयी।
अत्यधिक ठण्ड का महीना और कुहरे के बीच, शोर और धातु के टकराने की आवाज ने जंगल की शांति को चीर दिया। जब ट्रेन गुजर गई, तब उस छोटे से जीव का शरीर पटरी के किनारे लहूलुहान पड़ा था। उसकी साँसें चल रही थीं और माँ को पुकारना जारी था, पर बदन में हर तरफ चोटें थीं और उसका झुंड उसे अपने साथ ले जाना चाहता था परन्तु जैसे ही अँधेरा छँटा और आदमियों की भीड़ बढ़ने लगी, उससे घबराकर झुण्ड उसे वहीं छोड़ कर  चला गया।
टक्कर इतनी भयानक थी कि बानी के शरीर को कई स्तरों पर नुकसान पहुँचा। रीढ़ की हड्डी (स्पाइन), सूंड, माथे और कमर के निचले हिस्से (lumbo & sacral region) में गंभीर फ्रैक्चर थे। पिछले दोनों पैरों की मांसपेशियाँ बुरी तरह क्षतिग्रस्त होकर कमजोर (muscular atrophy) हो गई थीं, जिससे उसका चलना लगभग असंभव था। हिप जॉइंट और जाँघ की हड्डियाँ (femur) में गहरी सूजन आ गई थी। शरीर पर जगह-जगह गहरे घाव, खरोंचें abrasionss) और बिस्तर घाव (bed sores) बन चुके थे, जो इस बात का संकेत थे कि वह लंबे समय तक जमीन पर गिरकर पड़ी रही होगी, असहाय और पीड़ित। उस नन्ही हथिनी का नाम तब तक किसी को नहीं पता था। लेकिन उसकी आँखों में जो डर और दर्द था, वही उसे एक असाधारण उपस्थिति दे गया। स्थानीय लोगों और वन विभाग की टीम ने उसे रेलवे ट्रैक के पास गंभीर अवस्था में तड़पते हुए पाया। उसके चारों ओर सन्नाटा था जैसे जंगल भी उसकी तकलीफ को महसूस कर रहा हो। यही वह क्षण था जब बानी की दूसरी जिंदगी की शुरुआत हुई, एक ऐसी जिंदगी, जिसे उसने सिर्फ साँसों से नहीं, बल्कि हौसले, धैर्य और इंसानियत की मदद से जिया।
वन विभाग की तत्परता और Wildlife SOS की चिकित्स्कीय मदद 
बानी के लिए समय हर पल कीमती था। ट्रेन की टक्कर के बाद उसकी स्थिति नाजुक थी, वह ना उठ पा रही थी, ना चल पा रही थी और ना ही खुद को घसीटने में सक्षम थी। ऐसी स्थिति में यदि तुरंत चिकित्सकीय हस्तक्षेप न होता, तो शायद वह जिंदा न बच पाती। इस कठिन घड़ी में उत्तराखंड वन विभाग की तत्परता ने उसकी जान बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रेलवे ट्रैक के पास बानी को गंभीर अवस्था में पड़ा देखने के बाद स्थानीय वन अधिकारियों और रेस्क्यू टीम ने तुरंत उसे प्राथमिक चिकित्सा दी। जख्मों की सफाई, संक्रमण नियंत्रण और सुरक्षित स्थान पर स्थिरता प्रदान की गई। लगभग एक महीने तक वन विभाग के पशुचिकित्सकों ने भरसक प्रयास किया की उसे खड़ा किया जा सके लेकिन यह स्पष्ट था कि बानी को सामान्य उपचार से अधिक की आवश्यकता थी। बानी की हालत को देखते हुए, वन विभाग ने Wildlife SOS को सहायता के लिए संपर्क किया। एक ऐसा संगठन जो वर्षों से भारत में हाथियों और अन्य वन्यजीवों के पुनर्वास और चिकित्सा में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। Wildlife SOS की विशेष रेस्क्यू टीम बानी के पास पहुँची, और उनकी विशेषज्ञ निगरानी में बानी को उत्तर प्रदेश के मथुरा स्थित Elephant Hospital Campus  ले जाया गया जो भारत का पहला विशेष हाथी अस्पताल है, जिसे इसी तरह की गंभीर परिस्थितियों में घायल या बीमार हाथियों के इलाज के लिए स्थापित किया गया है। यहाँ पर बानी के लिए एक दीर्घकालिक पुनर्वास योजना शुरू की गई जिसमें न सिर्फ शारीरिक चिकित्सा बल्कि पोषण, मानसिक सुकून और पर्यावरणीय समायोजन की प्रक्रिया भी शामिल थी। Wildlife SOS  ने यह स्पष्ट किया कि बानी उनकी संस्था द्वारा देखभाल में ली गई पहली शिशु हथिनी है। यह उनके लिए भी एक नया और चुनौतीपूर्ण अनुभव था, क्योंकि इतने छोटे उम्र के हाथी शावक की देखभाल में बहुत संवेदनशीलता, निरंतर निगरानी और वैज्ञानिक विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। 
बानी को अस्पताल के उस हिस्से में रखा गया जहाँ उसकी गतिविधियों पर चैबीसों घंटे निगरानी रखी जाती थी। उसे नर्म बिस्तर, विशेष आहार और नियमित दवाइयों के साथ एक सुरक्षित और स्नेहमयी वातावरण प्रदान किया गया। यहाँ के पशु चिकित्सक, फिजियोथेरेपिस्ट और देखभालकर्ता दिन-रात उसके पुनर्जीवन के लिए समर्पित थे। बानी की आँखों में अब दर्द के साथ-साथ भरोसे और अपनापन की झलक भी दिखने लगी थी। वह धीरे-धीरे उस विश्वास को महसूस करने लगी थी कि अब वह अकेली नहीं है। बानी अभी भी वहीँ है और उसके लिए यथासंभव प्रयास जारी हैं। बानी की कहानी हमें प्रेरणा देती है कृ लेकिन यह चेतावनी भी है। हर वर्ष अनगिनत जीव ऐसे हादसों में अँधेरे में ही मर जाते हैं। यदि हम विकास के नाम पर वन्यजीवन की कीमती जिंदगियों को भूल जाएँ, तो हमारी संवेदनाहीनता का दाम कौन देगा? इसलिए, बानी की कहानी को नहीं भूलना चाहिए। इसे प्रकाश मिले, चर्चा सामना मिले, और योजनाएँ हों ताकि अगली बानी को कभी इस तरह की टक्कर न झेलनी पड़े।
 

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