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Talking Point

TreeTake is a monthly bilingual colour magazine on environment that is fully committed to serving Mother Nature with well researched, interactive and engaging articles and lots of interesting info.

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गिद्धों का संघर्षः विलुप्ति से अस्तित्व की ओर
डॉ.सोनिका कुशवाहा व डॉ.अखिलेश कुमार
भारतीय जैव विविधता संरक्षण संस्थान, झाँसी
जब हम पक्षियों और पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी भूमिका के बारे में बात करते हैं, तो गिद्ध स्वतः रूप से हमारे दिमाग में आते हैं। हमारे स्वस्थ जीवन में उनका योगदान अतुलनीय है। गिद्ध शिकारी पक्षियों के अंतर्गत आने वाले अपमार्जक या मुर्दाखोर पक्षी हैं। गिद्ध (टनसजनतम) पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी पक्षी होते हैं जो विशाल जीवों के शवों का भक्षण कर पर्यावरण को साथ-सुथरा रखने का कार्य करते हैं। पिछले दो दशकों से प्राकृतिक रूप से गिद्धराज जटायु के वंशज आज विनाश की कगार पर हैं। इस खास किस्म के पक्षी को कुछ वर्ष पूर्व झुंड के झुंड आसमान  मे उड़ते हुए देखा जा सकता था । लेकिन आज हमारी कल्पना से परे, आकाश उनकी उड़ानों से खाली होने लगा है। दुर्भाग्यवश भारत में गिद्धों की संख्या बहुत तेजी से गिर रही है। गिद्धो की संख्या मे गिरावट की सूचना 1960 में केरल में मिली थी, 1981 में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में। गिद्धों की एक बड़ी आबादी 1987 में समाप्त हो गई। 1990 में देश में गिद्धों की कुल संख्या लगभग 4 करोड़ थी जो कि आज घटकर 60 हजार से भी कम हो गई है। भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य से गिद्ध पूर्णतः विलुप्त हो चुके हैं। 1980 के मध्य तक देश में पर्याप्त संख्या में गिद्ध पाये जाते थे। यहाँ तक कि इन्हें शहरी क्षेत्रों में ऊँचे वृक्षों के आसपास मंडराते हुए आमतौर से देखा जाता था। जबकि आज गिद्ध ग्रामीण क्षेत्रों में भी दुर्लभ हैं। गिद्धों की घटती संख्या और बढ़ती मानव जनसंख्या से पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है। किसी समय मे प्राकृतिक सफाई कर्मी के नाम से समाज मे अपनी पहचान बनाने वाले ये पक्षी अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे है ।
विश्व  में गिद्धों की कुल 22 प्रजातियाँ पायी जाती हैं व नौ प्रजातियाँ भारत में पायी जाती हैं जिनमें से ज्यादातर जोखिमग्रस्त हैं। देश में गिद्धों की जो नौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं:
प्रजातियाँ                                       भारत में प्रवासी - अप्रवासी
श्याम गिद्ध (।महलचपने डवदंबीन- एजिपियस मोनैकस)        प्रवासी
यूरेशियन पांडुर गिद्ध (ळलचे थ्नसअन - जिप्स फलवस)       प्रवासी
सफेद पीठ गिद्ध (ळलचे ठमदहंसमदेप- जिप्स बेंगालेनसिस)    अप्रवासी
दीर्घचुंच गिद्ध (ळलचे प्दकपबने - जिप्स इण्डिकस)           अप्रवासी
बेलनाचुंच गिद्ध (ळलचे ज्मदनपतवेजतपे - जिप्स टेन्यूरास्ट्रीस)     अप्रवासी
पांडुर गिद्ध (ळलचे भ्पउंसंलमदेपे - जिप्स हिमालयेन्सिस)     अप्रवासी
गोबर गिद्ध (छमवचीतवद च्मतबदवचजमतने- नियोफ्रान पर्कनाप्टेरस)  अप्रवासी
राज गिद्ध  (ैंतबवहलचे ब्ंसअने - सारकोजिप्स कालवस)       अप्रवासी
अरगुल गिद्ध (ळलचंमजने ठंतइंजने - जिपिटस बारबेटस)     अप्रवासी
कुल नौ प्रजातियों में से दीर्घचुंच गिद्ध (जिप्स इण्डिकस), सफेद पीठ गिद्ध (जिप्स बेंगालेनसिस), बेलनाचुंच गिद्ध (जिप्स टेन्यूरास्ट्रीस) तथा राज गिद्ध (सारकोजिप्स कालवस) गंभीर लुप्तप्राय (ब्तपजपबंससल म्दकंदहमतमक) प्रजाति के अन्तर्गत आते हैं जबकि गोबर गिद्ध (नियोफ्रान पर्कनाप्टेरस) लुप्तप्राय (म्दकंदहमतमक) प्रजाति के अन्तर्गत आते है। श्याम गिद्ध (एजिपियस मोनैकस) तथा पांडुर गिद्ध की प्रजाति लगभग जोखिमग्रस्त (छमंत ज्ीतमंजमदमक) प्रजाति के अन्तर्गत आती है।
गिद्धों की प्राकृतिक वातावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है। गिद्धों की सेवाओं का मानव स्वास्थ्य, आर्थिक गतिविधि और पर्यावरण की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है। गिद्ध कुशलता से मृत पशुओं के शवों को खाकर, पर्यावरण को शुद्ध, मानव, पशुओं और वन्य जीवों में संक्रामक बिमारियों के फैलाव को रोकते है व प्राकृतिक दुनिया के स्वच्छता विभाग के रूप में काम करते हैं। गिद्धों के पाचन तन्त्र में लगभग किसी भी संक्रामक बीमारी को पैदा करने वाले रोगाणुओं को नष्ट करने की अद्वितीय क्षमता होती है। गिद्धों की अनुपस्थिति में आवारा कुत्तों की संख्या में वृद्धि हो गयी है परिणामस्वरूप रैबीज रोग तेजी से फैल रहा है। मृत पशुओं के मांस की आसान उपलब्धता ने कुत्तों के भोजन की आदत को बदल दिया है। जब वे मांस प्राप्त करने में विफल होते हैं, तो वे मनुष्य (विशेष रूप से बच्चों) पर हमला करते हैं और कभी-कभी अन्य जंगली जानवरों पर भी। कुत्ते गिद्धों को भी मृत जानवरों को नही खाने देते व हमला कर के भगा देते है।
गिद्धों की संख्या में गिरावट ग्रामीणों के जनजीवन पर आर्थिक प्रभाव डाल रही है। शवों को हटाने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। कभी कभी लोग मृत पशु को जल मे बहा देते है जिससे जल प्रदूषण हो रहा है । इसी तरह उर्वरक उद्योग को पशुओ की हड्डियों की कमी के कारण आर्थिक हानि से गुजरना पड़ रहा है। यह गरीबों का एक पुराना व्यवसाय था । गिद्धों का  हिंदू, पारसी, यूनानी, तिब्बति  और अफ्रीकी संस्कृतियों में धार्मिक महत्व है । भारत में पारसी समुदाय दो समस्याओं से जूझ रहा है- एक उनकी खुद की तेजी से घटती जनसंख्या और दूसरी गिद्धों की गिरती संख्या जिनकी पारसियों के मृत शरीर के निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चूंकि आज गिद्धों की संख्या गंभीर स्तर तक घट गई है, इसलिए पारसी समुदाय इस परम्परागत क्रिया को त्यागने के लिए मजबूर है। विकल्प के तौर पर पारसी समुदाय सौर ऊर्जा का उपयोग शव को जलाने हेतु कर रहा है।
गिद्धों की संख्या में गिरावट के कई कारण हैं हालांकि भारत में गिद्धों की गिरती संख्या का मुख्य कारण मवेशियों के लिए उपयोग किया गया डाईक्लोफिनेक नामक दर्दनाशक दवा माना गया है । गिद्ध सफाईकर्मी पक्षी होने के कारण मवेशियों के मृत शरीर का भक्षण करते हैं। इस प्रकार डाईक्लोफिनेक रसायन उनके शरीर में पहुँच जाता है जिससे गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं परिणामस्वरूप गिद्धों की मौत हो जाती है। भारत सरकार ने गिद्धों की गिरती जनसंख्या को देखते हुए डाईक्लोफिनेक दवा के इस्तेमाल पर 2006 में ही रोक लगा दी थी और विकल्प के तौर पर मेलोक्सिकेम लाए। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस), ने 2001 से भारत में गिद्ध प्रजनन कार्यक्रम का नेतृत्व किया और हरियाणा के पिंजौर में पहला जटायु संरक्षण प्रजनन केंद्र शुरू किया । जटायु संरक्षण प्रजनन केंद्र असम, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भी स्थापित हैं। उत्तर प्रदेश महराजगंज जिले में अपना पहला जटायु संरक्षण प्रजनन केंद्र बनाने के लिए तैयार है। कैप्टिव प्रजनन एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इसके लिए करोड़ों रुपये की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि प्रजनन केंद्रों में पाले गए गिद्ध प्रकृतिक वातावरण में जीवित रह पाएंगे या नहीं।
डाईक्लोफिनेक के अलावा, गिद्धो के लगातार कम होने के अन्य कई महत्वपूर्ण कारण भी हैं। दुर्भाग्य से उन्हें महत्व नहीं दिया जा रहा है। निवास स्थानों का विनाश, लगातार बढ़ता शहरीकरण, प्रजनन की धीमी दर, भोजन की कमी, जहरीले शवों का भक्षण, सड़क और ट्रेन दुर्घटनाएं, विभिन्न विभागों के बीच समन्वय की कमी और कानूनी संरक्षण का अभाव गिद्धों की गिरती संख्या के कारण हैं। घोंसले बनाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले पेड़ों की कटाई से निवास और भोजन स्थल के विनाश  भी गिद्ध आबादी में गिरावट के कारण है। वृक्ष कटान और खनन बुंदेलखंड क्षेत्र में प्रजनन स्थलों के हनन के दो प्रमुख कारण हैं। गिद्ध दीर्घायु होते हैं लेकिन प्रजनन में बहुत समय लगाते हैं। गिद्ध प्रजनन में ५ वर्ष की अवस्था में आते हैं।  गिद्ध आमतौर से एक वर्ष में एक ही अण्डा देते हैं। यही कारण है कि गिद्ध अभी भी अपनी संख्या बढ़ा नहीं पा रहा है। प्रजनन स्थलों पर पर्यटकों और स्थानीय निवासियों की गतिविधियों की वजह से विघ्न भी चिंता का विषय हैं। भारत में कुछ समुदाय जैसे की गुंटूर और प्रकाशम आंध्र प्रदेश जिलों में, मुंबई के पास बपने और बेंगलूर के पास के गांवों सासनगिर और विश्वनीदन में लोग गिद्धों को पकड़ के सामान्य भोजन के रूप में या उत्सव के दिन खाने के लिए इस्तेमाल करते है। गिद्धों में धीमी प्रजनन दर भी उनकी संख्या गिरावट का एक कारण है।
गिद्धों का संरक्षण
गिद्धों की निरन्तर घटती आबादी गंभीर चिन्ता का विषय है अतः इन सफाईकर्मी पक्षियों के संरक्षण हेतु तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र एक मात्र विकल्प नही होना चाहिए है। गिद्ध एक विशाल खुले आसमान मे शानदार उड़ान भरने वाला आजाद पक्षी है, अतः सर्वप्रथम उनके प्राकृतिक आवासो को संरक्षित करना होगा। प्रजातियों के संरक्षण के लिए सभी ज्ञात प्रजनन, भोजन और बसेरा स्थलों की नियमित निगरानी व संरक्षण पर विचार करना चाहिए व उचित रणनीति की आवश्यकता है। कम से कम 1 किलोमीटर की परिधि में इन स्थलों के आसपास सभी गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना चाहिए । अर्जुन, पीपल, सेमल, क्वा के पेड़ों की कटाई प्रतिबंधित व वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। गौशालाओं को प्रोत्साहन देने से सुरक्षित और पर्याप्त भोजन सुनिश्चित करे । गिद्ध पुनर्वास व बचाव केंद्र की सुविधा से घायल और बीमार गिद्धों के उपचार में मदद मिलेगी। ‘‘गिद्ध गणना ‘‘ एक वर्ष में दो बार,  दिसंबर- जनवरी और मार्च - अप्रैल के महीने में कि जानी चाहिए। गिद्धों के विघटित आवासों के पुनरूद्धार की आवश्यकता है। पशु चिकित्सकों को गिद्धों के इलाज के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। सितंबर के पहले शनिवार को अंतरराष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस मनाये। विभिन्न विभागों के बीच समन्वय और समझ जैसे की पर्यटन विभाग (पर्यटकों द्वारा अशांति रोकने), पुरातत्व विभाग (स्मारकों में घोंसलों की रक्षा करने के लिए), वन विभाग (सर्वेक्षण और गिद्ध कालोनियों की निगरानी के लिए), कृषि विभाग (हानिकारक कीटनाशकों और ड्रग्स के प्रयोग से परहेज) शिक्षा विभाग (स्थानीय लोगों, छात्रों, ग्रामीणों, और वन के अधिकारियों के बीच जागरूकता के लिए)। संरक्षण के उपायों में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करें, खासकर युवाओं के लिए जागरूकता और शिक्षा कार्यक्रम । स्थानीय समुदायों को शामिल किए बिना गिद्ध की अवधारणा असंभव है। संरक्षण ड्राफ्ट तैयार करते समय, सरकारी और गैर-सरकारी संगठन स्थानीय लोगों की उपेक्षा करते हैं। यह गिद्ध संरक्षण के लिए कार्य योजनाओं में एक बड़ा अंतर पैदा करता है। विभिन्न विभागों के लोगों को शामिल किए बिना गिद्ध संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और सेमिनार आयोजित करना निरर्थक है। सीमित कर्मचारियों के साथ अपनी स्वयं की कार्य योजना के साथ मुट्ठी भर वैज्ञानिक करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी गिद्धों को बचाने में विफल रहेंगे। संरक्षण एकल प्राधिकारी या लोगों के एक समूह के साथ संभव नहीं है।

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