A First-Of-Its-Kind Magazine On Environment Which Is For Nature, Of Nature, By Us (RNI No.: UPBIL/2016/66220)

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Thinking Point

TreeTake is a monthly bilingual colour magazine on environment that is fully committed to serving Mother Nature with well researched, interactive and engaging articles and lots of interesting info.

Thinking Point

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डूब कर उबरें कैसे 
एके सिंह
साठ साल के माधो भाई के लिए दुनिया पहचान न पाने की हद तक बदल चुकी है। इनका जन्म मध्य प्रदेश के धार जिले के एक छोटे से गांव चिकाल्दा में हुआ था जो की नर्मदा तट पर स्थित है। यहीं इन्होने अपना संपूर्ण जीवन बिता दिया परन्तु आज स्थिति यह है कि वे माँ नर्मदा की बुरी दशा से व्यथित हैं। वे बताते हैं कि एक समय था जब इस नदी के दोनों तटों पर खरबूजे की बेहद अच्छी पैदावार लहलहाती रहती थी और वे अपने पिता के साथ उन फलों को बेचने मंडी जाया करते थे। प्रकृति ने हमें बहुत दिया था, उनकी आवाज में मायूसी साफ झलकती है। अब वो दिन लद चुके हैं और आज के किसान इतना भी नहीं उगा पाते कि अपना गुजारा चला सकें। चिकाल्दा ही नहीं यह स्थिति तो नर्मदा के विशाल तट पर बसे सभी गावों की है, वो कहते हैं। नर्मदा दक्षिण दिशा में बहने वाली भारत की विशालतम नदी है जो कि इसपर बने सरदार सरोवर बाँध के विरोध के चलते राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय सुर्खियों में भी रही है।
दो बार हुए विस्थापित
पर चिकाल्दा की मुश्किलें सरदार सरोवर बाँध निर्माण से बहुत पहले ही आरम्भ हो चुकी थीं जब नर्मदा पर बरगी बाँध का निर्माण शुरू हुआ था। बरगी बांध जबलपुर जिले व समीपी जिलों के लिए वरदान साबित हुआ है तो कई मायनों में इसके निर्माण की नींव विनाश पर भी टिकी हुई है। इसे नर्मदा पर बनाए गए 30 बांधों में से सबसे पहला बांध होने का गौरव प्राप्त है। वहीं इसके लिए प्रचुर उपजाऊ जमीन वाले और समृद्ध 162 गांवों को उजाड़ दिया गया था। 7 हजार परिवारों के एक लाख से अधिक लोग इसके कारण अपनी जमीन, घर-बार छोडने पर विवश हो गए थे। इनमें से अधिकांश परिवारों के लोग आज अपनी आजीविका के लिए शहर में मजदूरी करते व रिक्शा चलाते सहजता से देखेे जा सकते हैं। नर्मदा में बनाए गए इस बांध के लिए केंद्रीय जल एवं शक्ति आयोग ने प्रारंभिक निरीक्षण 1947 ईस्वी में कराया था। 1968 में इस बांध के प्रोजेक्ट को मंजूरी मिली, लेकिन 1974 में इसका काम आरंभ हो सका। 1990 में इसका कार्य पूर्ण हुआ, जब इसे पूरी जलसंग्रहण ऊंचाई 422.76 मीटर तक भरा गया। बांध के लिए प्रारंभिक सर्वे के मुताबिक 26797 हेक्टेयर जमीन ली गईं। इसमें से 14750 हेक्टेयर निजी स्वामित्व की जमीन थी। लेकिन हकीकत में इससे बहुत अधिक प्रचुर उपजाऊ जमीन इस प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ कर जलमग्र हो गई। बांबे हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एसएम दाउद की 1987 की रिपोर्ट के मुताबिक इस बांध के लिए 80,860 हेक्टेयर जमीन ली गई थी। बांध के विस्थापितों में से अधिकांश को पहली बार जहां बसाया गया, बांध के अंतिम चरण के निर्माण में इंजीनियरों की गलती से वे क्षेत्र फिर डूब में आ गए। इसके चलते उन्हें दोबारा अपनी बसी बसाई गृहस्थी व जीविकोपार्जन के साधन का परित्याग करना पड़ गया। बांध के निर्माण में 566.31 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इसकी मुख्य नहरों के निर्माण में 1660.80 करोड़ रुपये की लागत आई। डैम के लिए जबलपुर, मंडला व सिवनी जिलों के 162 गांवों को उजाड़ा गया था। इनमें से 11 गांव सरकारी जमीन पर थे। उजाड़े गए शेष  19 गांव जबलपुर जिले, 45 सिवनी जिले के व सर्वाधिक 87 गांव मंडला जिले में थे। विस्थापितों में सर्वाधिक 43 प्रतिशत आदिवासी थे। बहुत अड़चनों के बाद बने इस बांध की बहुत बड़ी कीमत नर्मदा घाटी के किसानों ने चुकाई। पहले तो बरगी बांध के निर्माण के कारण यहाँ बार बार बाढ़ आती थीं और हमारे खरबूजे के खेत साल दर साल डूब जाते थे, और उसपर सरकार हमें मुआवजा भी नहीं देती थी। हम तो न घर के थे न घाट के, माधो भाई बताते हैं। २००८-०९ तक चिकाल्दा के अधिकतर फल उगाने वाले किसानों ने यह व्यवसाय छोड़ मझलियाँ पकड़ना आरम्भ कर दिया था। पर प्रदुषण व विपरीत जलीय पारिस्थितिकी के चलते यहाँ मझली का उत्पादन भी लगभग समाप्त हो गया और इन नए नए मछुआरों का व्यवसाय फिर एकबार छूट गया। अब उनके सामने फिर जीविका की समस्या उत्पन्न हो गई। ‘‘जब नदी की धरा अविरल थी यहाँ खूब मछलियाँ होती थी, पानी में उछलती, खेलती, पर अब जबकि नदी का पानी स्थिर हो गया है, सड़ने लगा है तो ऐसे में मछलियाँ कैसे जीवित रहेंगी। हमारा तो मछली पकड़ने का प्रयास विफल होना ही था। अब हम कैसे जीविका चलाएं।‘‘ ऐसा कहते हुए वहां की निवासी सबा की आँखों में आंसू तैर जाते हैं। पैंसठ वर्ष की इन महिला ने पंद्रह साल पहले किसानी छोड़ मछली पकड़ना आरम्भ किया पर वो भी आज जीविका के लिए पीड़ित हैं।
मान सरोवर बाँधः उपलब्धि भी, बर्बादी भी
बरवानी से १५० किलोमीटर अपस्ट्रीम में स्थित सरदार सरोवर बाँध नर्मदा तट पर बने विशालतम बांधों में से एक है जो कि विद्युत् उत्पादन की दृष्टि से हिमांचल प्रदेश के भाखरा नंगल और उत्तर प्रदेश के लखवार जलविद्युत प्रौद्योगिकी के बाद तीसरे नंबर पर आता है। सरदार सरोवर परियोजना में रिवर बेड पावर हाउस और कैनाल हेड पावर हाउस नामक दो पावर हाउस शामिल हैं। इस परियोजना के तहत मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात को बिजली साझा की जाती है। हाल ही में मध्य प्रदेश और गुजरात के बीच नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध में पानी छोड़ने को लेकर विवाद सामने आया है। मध्य प्रदेश ने गुजरात के साथ अपने अधिशेष पानी को साझा करने से इनकार कर दिया है। मध्य प्रदेश सरकार ने अधूरे नियमों और विनियमों का हवाला देते हुए कहा है कि यदि जलाशय का स्तर बढ़ता है, तो पुनर्वासित लोग और भी प्रभावित होंगे। २०१७ में इसके पूरे निर्माण के बाद मान सरोवर बाँध को केंद्र सरकार ने २८ अगस्त २०१९ में पूरी तरह भरने का निर्णय लिया और जब इसके पानी का स्तर १३४ मीटर पहुँच गया तब इसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ऐतिहासिक उपलब्धि करार दिया। परन्तु दूसरी ओर लगभग ६००० - यह आंकड़े मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव द्वारा केंद्र को बताये गए जब उन्हें मई २०१९ में इसे भरने सम्बंधित नोटिस मिला - विस्थापित परिवार उसी डूबे की चपेट में आये इलाके में रहते रहे क्योंकि उन्हें मुआवजा या उचित मुआवजा प्राप्त नहीं हो पाया था। वे जानते हैं कि जैसे ही पानी का स्तर १३८ मीटर के ऊपर होगा, उनके पैरों के नीचे की जमीन भी जलमग्न हो जाएगी पर वे कहते हैं कि आज की स्तिथि में वे जाए भी तो कहाँ। पचास साल के रमेश जदम अपने नौ सदस्यों के परिवार के साथ छोटा बरदा में एक कच्चे मकान में बैठे है। उनके घर के समीप ही सरकारी कैंप लगा है जिसमें विस्थापितों की समस्याएं एवं जानकारियाँ ली जा रहीं हैं। हर घर की तरह, उनके घर के दरवाजे पर भी लाल रंग से एक अंक चिन्हित है जो कि यह दर्शाता है कि बाँध के पूरी तरह भरने के बाद वह डूब की स्थिति से कितना दूर है। उनके यहाँ वाला अंक है १३९ जो कि इस बांध की पूरी क्षमता है और इसके डूबना तय है पर उनको परवाह नहीं। वे कहते हैः ‘‘२००८ में जब यहाँ बीजेपी सरकार थी तो हमें ५४०० स्क्वायर फीट जमीन पास के गांव में दी गयी थी। यहाँ ही हम डूबे के विस्थापितों को बसाना था। पर हमें मुआवजे में केवल एक लाख रुपये ही मिले जो कि इतने भी नहीं कि हम मकान की नींव डाल सके इसलिए हम यहीं रुके रहे। २०१७ में पांच लाख अस्सी हजार के अतिरिक्त मुआवजे का ऐलान हुआ। आज सरकार कांग्रेस की बन चुकी है पर हमें मुआवजा अभी भी नहीं मिला, ऐसे में हम कैसे दूसरे स्थान चले जाएं, हम रहेंगे कहाँ।‘‘ वहीं जब नर्मदा बचाओ आंदोलन ने एक वीडियो ट्वीट किया जिसमे मध्य प्रदेश के धार जिले के एक किसान के आत्महत्या का प्रयास किया था तो राज्य सरकार ने तत्काल मीटिंग बुलाई व स्थिति का जायजा लिया। सरकारी सूत्रों ने यही दोहराया कि सब नियंत्रण में है और विस्थापितों के पुनर्वास के लिए पर्याप्त धन व सहायता प्रदान की जा रही है। १९७९ में बने कानून के अनुसार यहाँ सभी प्रभावित परिवारों को जमीन, मुआवजा व खेती प्रदान करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और उच्च न्यायालय के २००० में आये आदेश के अनुसार भी सरकार को पहले लोगों का पुनर्वास करना होगा और बाद में निर्माण। उद्हारण के रूप में यदि सरकार १०० मीटर तक बांध बनाती या भर्ती है तो पहले उस क्षेत्र में बसे लोगों का पुनर्वास सुनिश्चित करे और बाद में निर्माण। सरदार सरोवर प्रोजेक्ट में हालांकि जमीन तो अधिकतर प्रभावित परिवारों को मिल गयी पर मुआवजा नहीं। इसीलिये बहुत से लोगों ने यहीं बसे रहने का फैसला किया। २०१७ में इनको अतिरिक्त ५.८ लाख मुआवजे की घोषणा हुयी पर पैसा कुछ को मिला कुछ को नहीं। जिन्हे नहीं मिला वे रहते रहे और आज भी रह रहे हैं। जादव भी उन्ही में से है, उसने हमें बताया। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टोरेट के सूत्रों के अनुसार जितने परिवार खतरे में थे, उन्हें जबरन सुरक्षित स्थानों पर छोड़ा गया और उनके खाने पीने का भी प्रबंध किया गया। पर पुनर्वास तो राज्य सरकार का विषय व निर्णय है, क्षेत्रीय अधिकारी केवल उसका अनुपालन कर सकते हैं, अपनी मर्जी से किसी को कहीं बसा नहीं सकते। मछुआरे गाजु नानूराम के अनुसार खाने से कुछ नहीं होता, ‘‘ये भी कोई जिंदगी है।‘‘ ४२ वर्षीय सुरेश प्रधान, निसारपुर गांव के एक दुकानदार जिसकी दुकान डूब चुकी है, बताते हैं कि यहाँ  सबसे अधिक मान सरोवर बांध से प्रभावित परिवार हैं। ‘‘सरकार ने सभी बालिग लोगों को ५.८ लाख के मुआवजा देना घोषित किया था। इसका मतलब है कि यदि परिवार में एक बाप है और उसके तीन बालिग बच्चे हैं तो उन सभी को अलग अलग मुआवजा मिलना चाहिए यानी कि रुपये २३.२ लाख। पर हमसे बोल गया गया है कि हम तो मुआवजे के हकदार ही नहीं है क्योंकि हमारा घर डूब की जद से थोड़ा ऊपर है। देखिये यहाँ पीले रंग से मार्क लगाया गया है। ‘‘अब उनकी पुश्तैनी जमीन और दो मंजिला मकान एक टापू की तरह खड़े हैं और चारों तरफ पानी ही पानी है। ‘‘यकीन रखिये जब पानी का स्तर बढ़ेगा तो यही लोग हमें नावों पर बचाने आएंगे,‘‘ वे कहते हैं। वहीँ छोटा बरगा गांव में विस्थापित के पुनर्वास शिविर में आये विक्रम सिंह के अनुसार ये सब दिखावा हैं, ‘‘इन लोगों के पास हमारे नाम पहले से हैं, अब केवल समय बर्बाद कर रहे हैं।‘‘ वहीं नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर कहती हैं कि जब कांग्रेस विरोध में थी तो हमारे साथ बैठ कर आंदोलन किया करती थी पर आज जब सत्ता में आ गयी है तो ढीली पड़ गयी है।
प्राकृतिक वास की गुणवत्ता में कमी
ऐसा माना जाता है कि छोटे बांध बड़े बांधों की तुलना में कम पर्यावरणीय समस्याओं का कारण बनते हैं। लेकिन भारत में छोटी जल विद्युत परियोजनाओं पर पहला अध्ययन साबित करता है कि छोटे बांध भी बड़े बांधों की तरह गंभीर पारिस्थितिकीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं, जिसमें मछली समुदायों में परिवर्तन और नदी के प्रवाह का बदलना शामिल है। यह देखने के लिये कि वास्तव में ऐसे छोटे बांध कितने पर्यावरण अनुकूल हैं, बंगलूरू फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल रिसर्च, एडवोकेसी एंड लर्निंग तथा अन्य संगठनों के वैज्ञानिकों ने तीन सहायक नदियों की लगभग 50 किलोमीटर क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन किया। इसमें पश्चिम में नेत्रवती नदी के दो बांध तथा कर्नाटक के घाट शामिल हैं। उन्होंने तीन जोनों का विस्तार से अध्ययन किया, बांध (अपस्ट्रीम) के ऊपर, बांध की दीवार और पावरहाउस के बीच का क्षेत्र जहाँ कभी-कभी पानी बिल्कुल नहीं होता है तथा पावरहाउस से नीचे जो कि पूरी तरह से जल रहित होता है। यहां, उन्होंने पानी की गहराई और चैड़ाई में अंतर का अध्ययन किया, जो दर्शाता है कि नदी के बाशिंदों के लिये कितना आवास उपलब्ध है और विघटित ऑक्सीजन सामग्री और पानी के तापमान सहित अन्य कारकों के माध्यम से आवासीय गुणवत्ता कैसी है। उनके द्वारा किये गए अध्ययन के परिणामों से ज्ञात हुआ कि अवरुद्ध भाग के जल प्रवाह में हुए परिवर्तन ने धारा की गहराई और चैड़ाई को कम कर दिया है साथ ही इन हिस्सों में पानी भी गर्म था और घुलित ऑक्सीजन का स्तर भी कम था। ये परिवर्तन जल निष्कासित क्षेत्रों में सबसे स्पष्ट थे जबकि सूखे भागों में और भी खराब हो गए थे। बंगलूरू फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल रिसर्च, एडवोकेसी एंड लर्निंग तथा अन्य संगठनों के वैज्ञानिकों ने तीन सहायक नदियों की लगभग 50 किलोमीटर क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन किया। प्राकृतिक वास की मात्रा और गुणवत्ता में कमी का असर मछलियों की विविधता में भी दिखाई दिया। टीम द्वारा अध्ययन के दौरान अनियमित हिस्सों में मछली प्रजातियों की एक उच्च विविधता दर्ज की गई है, जिसमें स्थानिक प्रजातियाँ (जो केवल पश्चिमी घाटों में देखी गई हैं) शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम का फैलाव वियोजित हो जाने से नदी के प्रवाह में बाधा आती है। घाटों में नदियों पर काफी संख्या में बनने वाली ऐसी छोटी जलविद्युत परियोजनाओं को गंभीर चिंता का विषय माना गया है क्योंकि इनके लिये पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की आवश्यकता नहीं होती है। सवाल छोटे बनाम बड़े बांधों का नहीं है, यदि उचित विनियम हैं तो छोटे बांध बुरे नहीं होते हैं। विनियमों में नदी के बेसिन में बांधों की संख्या सीमित करना या उस नदी के बहाव पर बांधों के बीच न्यूनतम दूरी को बनाए रखना शामिल हो सकता है। डूब की जद में आए गांवों की जमीन अत्यंत उपजाऊ व उर्वरा थी। बिना रासायनिक खाद का उपयोग किए यहां के लोग हर फसल उगाते थे। आम और महुआ के फलदार वृद्ध भी लाखों की संख्या में डूब में आ गए।
निरंतर गिरते आजीविका के सोत्र
नदी में जल रुकाव, और बेलगाम चल रहे बालू खनन के कारण नर्मदा घाटी पर स्थित मध्य प्रदेश के जिलों जैसे धार व बरवानी में रह रहे लोगों की आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़ा है क्योंकि मछली उत्पादन बेहद घट गया है। यहाँ के मछुवारों को तो शहर में मजदूरी कर पैसा कमाना पड़ता है। बरवानी से कुछ दूर स्थित पिचोड़ी गांव के ६३ साल के सालिग्राम अपने आसपास की खुदी हुई जमीन को दिखा कर कहते हैं कि कुछ वर्ष पहले तक इसी जमीन पर केला, पपीता, गेंहू जैसी कई फसलें लहलहाती थीं, पर अब वही धरा अवैध खनन का शिकार हो बदहाल और बेबस है। वे कहते हैं, यहाँ हमारा घर था, खेत खलिहान थे, पर जब इन लोगों ने नर्मदा को उजाड़ा, सब उजड़ गया। इनका परिवार अब भी यहीं रहता है जबकि यह सरदार सरोवर बांध के बनने के बाद से बाढ़ ग्रसित क्षेत्र हो गया था। आज इनकी गुजर बसर छोटी मोटी खेती व मछली पकड़ने से होती है। अवैध रेत खनन के मामले में महाराष्ट्र के बाद मध्यप्रदेश देश में दूसरे नम्बर पर है। नर्मदा बचाओ अभियान से जुड़े राहुल यादव बताते हैं कि पर्यावरण से जुड़े नियम-कायदों को ताक पर रखते हुए नर्मदा में रेत खनन जारी है। नर्मदा घाटी में बाक्साइट जैसे खनिजों की मौजूदगी भी पर्यावरण से जुड़े कई संकटों की वजह बनी है। नर्मदा के उद्गम वाले क्षेत्रों में 1975 में बाक्साइट का खनन शुरू हुआ था, जिसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हुई। हालांकि, बाद में वहाँ बॉक्साइट के खनन पर काफी हद तक अंकुश लगा। लेकिन तब तक पर्यावरण को काफी क्षति पहुँच चुकी थी। अब ऐसा ही खतरा डिंडोरी जिले में सामने आया है। डिंडोरी जिले में बाक्साइट के बड़े भंडार का पता चला है। इसकी भनक लगते ही भौमिकी एवं खनकर्म विभाग ने जिले की दो तहसीलों में बाक्साइट की खोज का अभियान शुरू कर दिया है। गौरतलब है कि अपर नर्मदा बेसिन के डिंडोरी और मंडला जिलों में वनस्पति और जानवरों के जीवाश्म बहुतायत में पाये जाते हैं। जबलपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एनडी शर्मा का कहना है कि ये दोनों जिले अंतररà

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