A First-Of-Its-Kind Magazine On Environment Which Is For Nature, Of Nature, By Us (RNI No.: UPBIL/2016/66220)

Support Us
   
Magazine Subcription

Thinking Point

TreeTake is a monthly bilingual colour magazine on environment that is fully committed to serving Mother Nature with well researched, interactive and engaging articles and lots of interesting info.

Thinking Point

Thinking Point

Thinking Point

वनों की कटाई धुआंधार जारी
रमेश गोयल
पृथ्वी पर मानव जीवन लंबे समय तक तभी चल सकता है, अगर हम वनों का संरक्षण करेंगे। अगर वनों की कटाई यूं ही होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी पर मानव जीवन दुश्वार हो जाएगा। पेड़ों की बेलगाम कटाई पृथ्वी पर विभिन्न जानवरों और पक्षियों के अस्तित्व को संकट में डाल रही है। अनुसूचित जनजातियों (वनवासियों) का जन्मजात जुड़ाव, जंगल, जमीन, जल से रहा है। उनको ही वन संपदा का रखवाला-रक्षक बनाया जाए। भारत की 2.3 लाख पंचायतों को वन रक्षा संस्कृति का संवाहक बनाया जाए। हर पंचायत मुख्यालय में ‘स्मृति-वन’ की स्थापना हो। हर शिक्षण संस्थान, हर सरकारी दफ्तर के प्रांगण में वृक्षारोपण हो..वनों की अवैध कटाई ने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है। वषों से हो रही लगातार अवैध कटाई ने जहां मानवीय जीवन को प्रभावित किया है, वहीं असंतुलित मौसम चक्र को भी जन्म दिया है। वनों की अंधाधुंध कटाई होने के कारण देश का वन क्षेत्र घटता जा रहा है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत चिंताजनक है। विकास कार्यों, आवासीय जरूरतों, उद्योगों तथा खनिज दोहन के लिए भी, पेड़ों-वनों की कटाई वर्षों से होती आई है। कानून और नियमों के बावजूद वनों की कटाई धुआंधार जारी है। इसके लिए अवैज्ञानिक व बेतरतीब विकास, जनसंख्या विस्फोट व भोगवादी संस्कृति भी जवाबदेह है।
पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक बीसवीं शताब्दी में पहली बार मनुष्य के कार्यकलापों ने प्रकृति के बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया को त्वरित किया और पिछले 50 सालों में उसमें तेजी आई है। जबसे हमने आठ और नौ फीसदी वाले विकास मॉडल को अपनाया है, तब से प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ गया है। उत्तराखंड बनते ही यहां की नदियों को खोदने, बांधने और बिगाड़ने की शुरूआत हो गई। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी वन स्थिति रिपोर्ट-2011 के अनुसार देश में वन और वृक्ष क्षेत्र 78.29 मिलियन हेक्टेयर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत है। 2009 के आंकलनों की तुलना में, व्याख्यात्मक बदलावों को ध्यान में रखने के पश्चात देश के वन क्षेत्र में 367 वर्ग किमी की कमी हुई है। 15 राज्यों ने सकल 500 वर्ग किमी वन क्षेत्र की वृद्धि दर्ज की है, जिसमें 100 वर्ग किमी वन क्षेत्र वृद्धि के साथ पंजाब शीर्ष पर है। 12 राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों (खासतौर पर पूर्वोत्तर राज्य) ने 867 वर्ग किमी तक की कमी दर्ज की है। पूर्वोत्तर के वन क्षेत्र में कमी खास तौर यहां पर खेती के बदलावों के कारण हुई है। नीति का लक्ष्य यह है कि 33 प्रतिशत क्षेत्र में वन और पेड़ है।
यहां जन और क्षेत्रीय अनुपात में 39-40 प्रतिशत वन विस्तारित क्षेत्र होना चाहिए, किंतु न्यूनतम सीमा 33 प्रतिशत निर्धारित की गई। सभी भारतीय राज्य इस मानक की भी पूर्ति नहीं कर पाए हैं। इसका सीधा कारण है कि वन-कटाई के अनुपात में जंगल की कटाई की समस्या सबसे ज्यादा तीसरी दुनिया के देशों में विमान हैं। विकास की प्रक्रिया से जूझ रहें इन देशों ने जनसंख्या वृद्धि पर लगाम नहीं कसी है। जंगलों के कटने से एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो तीसरी दुनिया से पहली दुनिया के देशों में शुमार होने के लालसा में हमारे देश में जंगलों को तेजी से काटा जा रहा है। हिमालय पर्वत पर हो रही तेजी से कटाई के कारण भू-क्षरण तेजी से हो रहा है। एक रिसर्च के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में भूक्षरण की दर प्रतिवर्ष सात मिमी तक पहुंच गई है। आजादी के समय 45 फीसद भू-भाग पर वन आछादित क्षेत्र था, परंतु इसके बाद हर साल पेड़ों की कटाई के कारण इसमें निरंतर कमी आ रही है, जिससे वर्षा की कमी पर्यावरण प्रदूषण के कारण मानव रोगों में वृद्धि आई है। तापमान में बढ़ोतरी के फलस्वरूप 20 से 25 फीसद फसलों का उत्पादन कम हो रहा है। धरती की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है।
देश के लगभग हर राज्य में विकास और अन्य गतिविधियों के नाम और आड़ में वनों की कटाई धड़ल्ले से जारी है। उत्तराखंड में बिजली के लिए बड़े-बड़े पावर प्रोजेक्ट बन रहे हैं। इन पावर प्रोजेक्ट के लिए नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं, पहाड़ों को खोदकर सुरंगें बनाई जा रही हैं। वनों को काटा जा रहा है, जिससे पहाडियां पूरी तरह नंगी हो चुकी है। वनों की कटाई के कारण मृदा का क्षरण हो रहा है, जिससे भूस्खलन हो रहा है। इस कारण नदियां और पहाड़ अपना बदला ले रहे हैं। प्रकृति ने पहले ही विनाश के संकेत दे दिए थे।
वनों और वृक्षों का विनाश मौजूदा दौर में राजस्थान की सबसे गंभीर और संवेदनशील समस्या बन गया है। प्रदेश में निरंतर पड़ रहे अकाल के पीछे भी अहम वजह वनों का विनाश ही है। राज्य के 33 में से 27 जिले भीषण जल संकट से जूझते रहते हैं। यह चिंतनीय है कि प्रदेश में वन घटे हैं। गिरावट एक प्रमुख कारण, ईंधन एवं चारे की मांग में निरंतर हो रही वृद्धि है। घरेलू ईंधन, लकड़ी के कोयले के कारोबार, फर्नीचर एवं अन्य भौतिक संसाधनों के लिए, पेड़ों की कटाई होती है। देश की जीवन-रेखा कहीं जाने वाली कई नदियां गर्मियों में सूख जाती हैं। वहीं बारिश में इनमें बाढ़ आ जाती है। हिमाचल और कश्मीर में हाल ही के सालों में हुई तबाही का मुख्य कारण यहां के जगंलों की हो रही अंधाधुन कटाई ही है। वनों की बेरहमी से हो रही कटाई के कारण एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, वहीं दूसरी और प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। कई जीव हमारी धरती से लुप्त हो चुके हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वर्ष 1990 से 2005 के हर मिनट नौ हेक्टेयर जंगलों का सफाया किया गया है। दूसरे शब्दों में हर साल औसतन 49 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों की कटाई की गई। पूरी धरती पर अब 30 फीसदी वन क्षेत्र ही बचा है, जो अपने आप में एक खतरे की घंटी है। वनों की तबाही और इसके चलते वन्य जीवों के विलुप्त होने के यह आंकड़े बहुत भी भयानक हैं। धरती पर पर्यावरण के असंतुलन के चलते वायु प्रदूषण भी अपने चरम पर है। कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों के अनुसार वनों की यह कटाई इंसानों के आमतौर पर किए जाने वाले विकास कायरों के नाम पर की है। इसके चलते 15 सालों (1990 से 2005) में पूरी दुनिया में सात करोड़ 29 लाख हेक्टेयर में फैली वन संपदा पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। यानी पिछले 15 सालों में शहर बसाने और विकास के नाम पर हर मिनट 9.3 हेक्टेयर वन उजाड़ दिए गए।
विश्व स्तर पर जो आंकड़े प्रकाश में आए हैं, उनसे पता चलता है कि वर्ष 1990 से 2000 के बीच वनों की कटाई का अनुपात प्रतिवर्ष 41 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष था, जो वर्ष 2000 से 2005 के बीच बढ़कर 64 लाख हेक्टेयर हो गया। वनों की कटाई से पर्यावरण में शुद्ध हवा का अभाव है। इतना ही नहीं ओजोन परत का बढ़ने में भी वनों की अंधाधुंध कटाई जिम्मेदार है। इससे वन से मिलने वाली वस्तुओं का भी खात्मा होता जा रहा है। इतना ही नहीं, लाखों की तादाद में वन्य जीव लुप्त हो रहे हैं। या फिर एकदम ही खत्म हो चुके हैं।  पारिस्थितिकी संतुलन के लिए कंजरवेशन एक्ट 1980 लागू हुआ। 1988 में न संरक्षण कानून पास हुआ। 1985 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड की स्थापना की गई। 1986 की राष्ट्रीय वन नीति में 60 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग तथा कृषि भूमि को छोड़कर 20 प्रतिशत मैदानी भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया। वन-विनाशक वुड-ट्रेडर्स के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया। चंदन तस्कर वीरप्पन को मुठभेड़ में मार गिराया गया। वन क्षेत्र वृद्धि के लिए केंद्र राज्य सरकारों को ऋण मुहैया कराती है। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ विकास योजना, यूरोपीय आर्थिक समुदाय तथा अन्य विश्व स्तरीय संस्थाएं भी भारत के वन क्षेत्र विकास के लिए आर्थिक मदद देती रही हैं।
पर्यावरण असंतुलन को रोकने के भागीरथी प्रयास होते रहे हैं, किंतु स्थिति जस-की-तस है। अब ऐसे प्रभाव कानून बनाने एवं उनके क्रियान्वयन की जरूरत है, जो वन कटाई से वन क्षेत्र के असंतुलन को रोकने में समर्थ हों। दूसरी ओर, जन जागरुकता का स्तर इतना उच्च हो कि वह वनारोपण को जीवन का ध्येय बना लें। परिवार नियोजन की तरह ही वन नियोजन लागू किया जाए। इसके तहत कटाई पर प्रतिबंध कड़ा किया जाए और नई संतति, नया वृक्ष व जितने परिवारीजन, रोपें उतने वन के नारों पर पूर्ण क्रियान्वयन शुरू किए जाएंगे। राजस्थान के विश्नोई समाज में पशु-पक्षी एवं वनों से जो लगाव है, उस भावना का स्थानांतरण जन-जन में होना चाहिए।
जनता को पर्यावरण बचाने के लिए पूर्व में संचालित आंदोलनों एवं अभियानों से प्रेरणा, लेनी चाहिए। 1973 में चंडी प्रसाद भट्ट (उत्तराखंड) के चिपको आंदोलन में वनों को वन व्यवसायियों से बचाने के लिए वृक्षों से लिपटकर वृक्ष रक्षण का दौर चला।

Leave a comment